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लेखः शिक्षा के स्वरूप का सवाल और जे. कृष्णमूर्ति

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शिक्षा कैसी होनी चाहिए, इस विषय पर चर्चा करने से पहले हमें यह विचार करना होगा कि शिक्षा की जरूरत क्यों है ? क्या शिक्षा सिर्फ इसलिए होती है कि बच्चे कुछ पढ़-लिख जायें? या शिक्षा बच्चों को नौकरी के योग्य बनाने के लिए होती है? क्या शिक्षा बच्चों को अच्छा इंसान बनाने के लिए होती है?क्या शिक्षा बच्चों को अपनी संस्कृति तथा विरासत का ज्ञान कराने के लिए होती है? क्या शिक्षा बच्चों को देशभक्त बनाने के लिए होती है?

ऐसा हो सकता है आप इनमें से कुछ खास उद्देश्यों को शिक्षा के लिए अनिवार्य बताएं। कुछ कह सकते हैं कि वे इन सब उद्देश्यों को शिक्षा के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं। तब सवाल उठेगा कि क्या आज की हमारी शिक्षा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में कुछ कर रही है? जवाब यही हो सकता है कि वह करना तो बहुत कुछ चाहती है, मगर कर नहीं पाती। खुद बच्चों, अभिभावकों तथा शिक्षक-शिक्षिकाओं को उलझाकर छोड़ देती है।

शिक्षा और परीक्षा की रेस

आज की शिक्षा बच्चों में पढ़ने-लिखने के प्रति रूचि जगाने के बजाय उन्हें परीक्षा पास करने की रेस में झोंक देती है, इसलिए पढ़ना-लिखना, आनंद, समझदारी या कुछ खोजने-जानने के लिए नहीं, रटकर अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने के लिए हो जाता है। यह विभिन्न प्रकार के कामों के प्रति रूचि पैदा नहीं करती, बल्कि आजीविका के लिए नौकरी की जरूरत को सामने रखती है। अच्छा इंसान बनाना, उसके उद्देश्य में नहीं है, ऐसा होता तो हमारे समाज में तमाम तरह के अपराध, अराजकता, क्रूरता तथा भ्रष्टाचार नहीं होता।

वह हमारी संस्कृति तथा विरासत के बारे में आलोचनात्मक तरीके से सोचने का विवेक पैदा नहीं करती, इसलिए या तो कुछ लोग संस्कृति की हर चीज को अच्छा और कुछ लोग सब चीजों को गलत कहने लगते हैं। शिक्षा का काम देशभक्त या किसी भी तरह का भक्त बनाना नहीं है, बल्कि समझदार बनाना है। भक्त विवेक खो देता है, जबकि एक लोकतांत्रिक देश को विवेकवान लोगों की आवश्यकता होती है।

कैसी होनी चाहिए शिक्षा?

शिक्षा के उद्देश्यों तथा आज की शिक्षा की स्थिति पर संक्षिप्त सी चर्चा करने के बाद अब हम बात करते हैं कि शिक्षा कैसी होनी चाहिए? शिक्षा दरअसल देश निर्माण का बुनियादी कार्य है। शिक्षा के उद्देश्य बड़े होंगे तो देश के लोग बड़े होंगे, देश बड़ा बनेगा। शिक्षा छोटी या गड़बड़ होगी तो देश छोटा या गड़बड़ हो जाएगा। शिक्षा उलझी हुई होगी तो देश उलझ जाएगा। शिक्षा भ्रमित या बंटी हुई होगी तो देश बंटेगा।

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इसलिए शिक्षा के उद्देश्य बड़े होने चाहिए। बुनियादी तथा माध्यमिक शिक्षा को एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में देखा जाना चाहिए। उतना ही महत्वपूर्ण, जितना की देश की सुरक्षा को। शिक्षा के उद्देश्य बड़े हो जायेंगे तो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अराजकता जैसी कई समस्याएं स्वतः खत्म होने लगेगी, क्योंकि बड़ी सोच रखने वाले नागरिक खुद इन समस्याओं के निदान को आगे आने लगेंगे। देश के नेतृत्व में ऐसे लोग होंगे, जिनकी चिन्ता में अपनी निजी तथा पार्टिंयों की महत्वाकांक्षा के बजाय देश सबसे पहले होगा।

इसलिए एक लोकतांत्रिक देश की शिक्षा ऐसी नहीं हो सकती, जो अमीरों-गरीबों के लिए अलग-अलग हो। उसे सभी के लिए एक जैसा होना चाहिए ताकि देश की सच्चाई को अमीर-गरीब दोनों वर्गों के बच्चे मिलकर महसूस करें। उन्हें ऐसा माहौल दिया जाए कि वे स्वतंत्रतापूर्ण तरीके से विकास कर सकें ताकि आगे जाकर चीजों को बदल सकें न कि आज की तरह बुरी तथा भ्रष्ट स्थितियों से सामंजस्य जमाने वाले बन जाएं। जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में कहें तो उन्हें ऐसी शिक्षा दिए जाने की जरूरत है जो इस जीवन का सामना करने में उनकी मदद करे ताकि वे जीवन को समझ सकें, उससे हार न मान लें, उसके बोझ से दब न जाएं, जैसा कि हम में से अधिकांश लोगों के साथ होता है। हमारी शिक्षा को लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांत समानता, न्याय तथा बंधुत्व पर आधारित होना चाहिए। हमारा पाठ्यक्रम ऐसा हो कि संवैधानिक सिद्धांतों को जीवन में उतार सके।

शिक्षा पद्धति के बारे में जे. कृष्णमूर्ति के विचार

आज की हमारी शिक्षा यह सब करने के बजाय किसी और ही दिशा में चल रही है। इसलिए जे. कृष्णमूर्ति मानना था हर शिक्षा पद्धति, चाहे वह एकदम नई हो या पुरानी असफल हो चुकी है, क्योंकि वह इस संसार में न तो मनुष्यों के बीच शांति ला पायी है और न उसने गहन सांस्कृतिक उत्थान का कार्य किया है। अतः सवाल यह है कि शिक्षा में क्या-क्या किया जाए कि यह मनुष्य के रूपांतरण में सहायक हो सके।

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कृष्णमृर्ति ने लिखा, ‘शिक्षा का काम है कि वह मानवीय अस्तित्व के सारे आंतरिक एवं वाह्य निहितार्थों का खुलासा करे। हमारा जीवन सिर्फ उतना ही नहीं है जैसा कि बाहर से प्रतीत होता है, वह तो बहुत सतही है। हम मे और भी कई गहराइयां छिपी हैं। इन सबको समझने के लिए, इनका रहस्य बूझने के लिए और इनसे पार जा सकने के लिए शिक्षा का उपयोग है।’

सबके लिए एक समान शिक्षा की जरूरत

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सभी प्रकार के स्कूलों के भौतिक संसाधन लगभग एक समान होने चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ स्कूल बहुत अच्छे तथा कुछ बेहद खराब हालत में हों। विद्यालय ऐसा स्थान होना चाहिए कि जहां भय का कोई स्थान न हो। स्कूल को निरंतर भय के विभिन्न रूपों से मुक्त होने की दिशा में काम करना होगा तथा बच्चों को भय से मुक्ति पाने में सहयोग करना होगा।

इस संबंध में जे. कृष्णमूर्ति का कहना था कि किसी भी प्रकार के भय पर आधारित विद्यालय भ्रष्ट विद्यालय होता है। उसका न होना ही बेहतर है। इस समस्या को समझने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षकों और विद्यार्थियों में पर्याप्त विवेक शक्ति हो। भय विकार ग्रस्त बना देता है तथा भय से मुक्त होने के लिए प्रत्येक को यह समझना होगा कि मन भय को किस प्रकार निर्मित करता है।

सवाल यह है कि विद्यालय में अध्ययन का क्या तरीका हो? अभी विद्यालय में शिक्षण को विभिन्न वादनों में बांट दिया जाता है। अध्यापक अलग-अलग कक्षाओं में जाकर शिक्षण करते हैं तथा बच्चे पीरियड दर पीरियड पढ़ते जाते हैं। इसमें होता यह है कि पीरियड शुरू होने के कुछ समय बाद जैसे ही विषय में तारतम्य जमने लगता है पीरियड खत्म हो जाता है। इस तरह से यह पूरी प्रक्रिया यांत्रिक बन जाती है। यांत्रिक होने की बुराई यह है कि शिक्षक तथा विद्यार्थी दोनों शिक्षा को यंत्रवत प्रक्रिया मानने लगते हैं।

‘असंवेदनशीलता का कारण’

इस संबंध में कृष्णमूर्ति का कहना था कि किसी भी चीज का आदी होने पर उसके प्रति असंवेदनशीलता बढ़ जाती है। यह एक विनाशकारी प्रक्रिया होती है, क्योंकि इसमें रहने वाला मन, मंदबुद्धि तथा जड़बुद्धि हो जाता है। इसलिए शिक्षा का कार्य है कि मन को संवेदनशील होने में, सतर्क होने में सहायता करे ताकि यह आदत या परंपरा में बंधकर कार्यरत न रहे, ताकि यह किसी भी चीज का अभ्यस्त न हो जाये, ताकि यह सदैव ताजा और जीवंत रहे। जब आप स्वतंत्रता का खुशी का अनुभव करते हैं, जब आप रूचि लेते हैं तो आप बेहतर ढंग से अध्ययन करते हैं।

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शिक्षा को जीवन के सवालों तथा मूल्यों को समझने में सहायता करनी चाहिए। उसे प्रकृति तथा अन्य प्राणियों से मनुष्य के रिश्ते को विद्यार्थियों को समझाना चाहिए। उसे गरीबों, वंचितों, दलितों, स्त्रियों तथा अल्पसंख्यकों के बारे में सही समझ बनाने में मदद करनी चाहिए। साहित्य, कला, संगीत तथा शारीरिक श्रम बच्चों को संवेदनशील बनाने में सहायता करते हैं। संवेदनशील होने का अर्थ है, अपने चारों ओर के जीवन के प्रति सतर्क तथा सहज होना। सुंदरता, कुरूपता, मृत्यु, दुख, पीड़ा, खुशी को स्वीकार करना।

इसके लिए जे. कृष्णमूर्ति का मानना था कि बच्चों में बचपन से ही अच्छी अभिरूचियां पनप सकें, सुंदरता, अच्छा संगीत, अच्छे साहित्य की ओर चित्त का रूझान रहे ताकि मन अत्यन्त संवेदनशील हो सके, निकृष्ट या मूढ़ न बने। सौंदर्य को समझना और उससे प्रेम करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, उसके बिना वास्तविकता का दर्शन कर पाना संभव नहीं है।

यह भी सच है कि अनुशासन के मामले में भी हमारी शिक्षा में सही समझ का बेहद संकट है। शिक्षा में सही सोच व संसाधनों का अभाव होने के कारण उसे अनुशासन से नियमित करने की कोशिश की जाती है। अनुशासन को लेकर जे. कृष्णमूर्ति ने कहा था, ‘आप जितना अधिक अनुशासनबद्ध होते हैं, आप जितना अधिक अंकुश स्वयं पर लगाते हैं, जितना दमन करते हैं और जितना अधिक संयम साधते हैं, आपका मन उतना ही अधिक संकीर्ण, क्षुद्र होने लगता है। क्या आपने नहीं देखा कि जो लोग बहुत अनुशासन में रहते हैं, उनके पास स्वतंत्रता होती ही नहीं? उनमें सहज भावनाएं नहीं होती, उनकी समझ विशाल नहीं होती।

सृजनशीलता की भावना को प्रेरित करे शिक्षा

कुल मिलाकर शिक्षा को बच्चों में सृजनशीलता की भावना को प्रेरित करना चाहिए। वे निर्माण या रचना करने को प्रेरित हों। उन्हें शारीरिक कार्य करने में आनंद आए। वे किसी कार्य को छोटा या बड़ा न समझें। उनमें मिलकर कार्य करने की भावना विकसित हो। सृजनशील व्यक्ति उदार तथा करूणावान होता है। भय सृजनशीलता का सबसे बड़ा शत्रु है। इसी प्रकार महत्वाकांक्षी व्यक्ति भी सृजनशील नहीं हो सकता, वह सदा पीड़ित रहता है। हमें बच्चों को महत्वाकांक्षा को समझने में सहायता करनी चाहिए क्योंकि महत्वाकांक्षा को समझे बिना सृजनशीलता संभव नहीं है।

जे. कृष्णमूर्ति भय तथा सृजनशीलता के संबंध को स्पष्ट करते हुए लिखा, ‘यह धरती हमारी है, यह भावना होना भी कुछ हद तक सृजनशीलता ही है। परंतु जब आपमें भय होता है, जब आप यह कहने लगते हैं कि यह मेरा देश है, मेरी जाति है, मेरा समुदाय है, मेरा दर्शन है, मेरा धर्म है तो वह भावना समाप्त हो जाती है। जब आप में ऐसी भावना होती है तो आप सृजनशील नहीं रह जाते क्योंकि मेरा देश, मेरा धर्म, इस तरह की भावना भय की वृत्ति से ही पैदा होती है। जबकि यह धरती न आपकी है, न मेरी है-यह तो हम सभी की है और यदि हम इस तरह से सोच सकें तो हम एक बिल्कुल भिन्न प्रकार की दुनिया निर्मित कर पाएंगे।’

कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज की हमारी शिक्षा का स्वरूप लोकतांत्रिक तथा संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। यह लोगों की हैसियत के अनुसार बंटी हुई है। इसका व्यापक रूप से बाजारीकरण हो चुका है। दुर्भाग्य से इसका उद्देश्य सबकी कामयाबी के बजाय निजी कामयाबी हो गया है। मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि हम शिक्षा के सही स्वरूप पर बात न करें। यह जरूरी है कि हम एक लोकतांत्रिक देश में शिक्षा की आदर्श स्थिति पर बात करते रहें ताकि हमें अपनी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को समझने में मदद मिले।

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(लेखक दिनेश कर्नाटक शिक्षक होने के साथ-साथ शैक्षिक दख़ल पत्रिका के संपादक भी हैं। इसके साथ ही उनकी कहानी, उपन्यास, यात्रा तथा आलोचना की छह किताबें भी प्रकाशित हैं। वर्तमान में नैनीताल जिले के एक दूरस्थ इंटर कालेज में प्रभारी प्रधानाचार्य के रूप में कार्यरत हैं। शिक्षा और साहित्य के सवालों पर लगातार विमर्श और चर्चाओं में सक्रिय भागीदारी करते हैं।)

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