शिक्षक प्रोत्साहन सिरीज़: ‘स्कूल ऐसा हो, जहां दीवारें भी बोलती हों – निवेदिता’

अध्यापिका निवेदिता को दीवार की पेंटिंग में रुचि के लिए एक बच्चे ने प्रेरित किया।
पिछले वर्ष 2019-20 माह अप्रैल में विद्यालय में प्रवेशोत्सव मनाया जा रहा था। कई बच्चे प्रवेश हेतु अपने माता-पिता के साथ विद्यालय प्रागंण में उपस्थित थे। बच्चों को प्रवेश हेतु आता देख हम सभी अध्यापक खुश थे और हो भी क्यूं न। इन्हीं बच्चों के होने से तो हमारा वजूद है। सभी अभिभावक व बच्चों के साथ शिक्षक बातचीत कर रहे थे।
एक मां अपने दो बच्चों को प्रवेश हेतु विद्यालय लेकर आई थी बातचीत करने पर पाया कि उसके एक ही बच्चे का विद्यालय में प्रवेश हो सकता है।
दूसरा बच्चा अभी साढ़े चार वर्ष का ही था सो उसे प्रधान अध्यापक द्वारा अगले वर्ष प्रवेश के लिए लाने को कहा गया।
दीवार पर बने चित्र से लगाव
उस बच्चे को इस बातचीत से कोई सारोकार नहीं था सो वह अपनी मां का हाथ छुड़ाकर बाहर चला गया। उस बच्चे की आंखों में एक आकर्षण था, मैं चुपचाप उसे पीछे-पीछे गई। देखा तो वह बच्चा कोने में दीवार में बने एक चित्र पर बड़े प्यार से हाथ फेर रहा था।
वह चित्र बहुत पुराना पड़ चुका था इसलिए जगह-जगह से रंग भी फीका पड़ चुका था परंतु फिर भी उस चित्र के प्रति बच्चे का आकर्षण गजब का था। उसने यर्थाथ में बगुले को कभी न देखा होगा। पर वह उससे किसी परिचित की तरह बातें कर रह था। वह साथ में अन्य बने जानवरों को देख तरह-तरह के मुंह बना कर हंस रहा था। थोड़ी देर तक तो मैं उसे देखती रही फिर अपने आप को उसके पास जाने से न रोक सकी। वह मुझे देख कर बिना झिझक तपाक से बोला मैम जी ‘‘यो चिड़िया की एक टांग बहुत लम्बी है पर एक मुड़ी हुई क्यों हैं?’’
और न जाने कितने ही प्रश्न वह चित्रों में बने जानवरों को देख मुझ से कर बैठा। मैं उसका जवाब दे पाती इससे पहले उसकी मां उसे गोदी में उठा यह कहते हुए चल दी कि यह बहुत ही बोलता है। मैम यह अगले साल एडमिशन के लिए आएगा, मैंने मुस्कुराते हुए कहा ‘मुझे इंतजार रहेगा’।
‘बच्चा तो चला गया, लेकिन मेरे में ढेरों सवाल छोड़ गया’
वह बच्चा तो अपनी मां के साथ चला गया परंतु मेरे मन में कई प्रश्न, कई बातें, कई विचार वह जाते-जाते जगा गया। मैं सोचने लगी इन दीवारों को क्यों कर निर्जीव कहा जाए इनसे तो वह बच्चा न जाने कितनी बातें करके गया है। मन में विचार आया क्यों इसी कोने में एक चित्र हो?
क्यों न विद्यालय की दीवारों में जहां चित्र बन सकते हो बनाए जाएं। प्राइमरी स्कूल, छोटे-छोटे बच्चों का स्कूल जहां उनके होने भर से ही सारा वातावरण सजीव हो उठता हो तो फिर दीवारों को क्यों निर्जीव (कोरा) छोड़ा जाए। क्यों न इन दीवारों पर विद्यालय के बच्चों के द्वारा ही कुछ ऐसा चित्रित किया जाए जो सभी बच्चों के साथ भविष्य में बातचीत करने का एक सशक्त माध्यम बन सके।
‘मैंने दीवारों पर चित्र बनाने का विचार बच्चों से साझा किया’
मैं विद्यालय में कक्षा 5 के बच्चों को पढ़ा रही हूं। मेरे मन में जब भी कोई विचाार आता है तो सबसे पहले अपने बच्चों के साथ ही साझा करती। मुझे ऐसा लगता है कि वे ही सबसे बैस्ट सॉल्यूशन खोजते हैं और किसी भी काम को करने का यदि मन बना ही लिया हो और जब करना भी बच्चों ने ही हो तो उनसे बेहतर जवाब कोई और दे भी नहीं सकता। मैंने जैसे ही बच्चों को पूछा कि ‘क्या कुछ पेंटिग दीवारों पर की जा सकती है वो भी उन्हीं के द्वारा’। सब ने एक स्वर में कहा ‘क्यों नहीं हम जरूर कर सकते हैं।’’
बस इतना सुनना था कि बच्चे वॉल पेंटिग से सम्बन्धित अनुभव सुनाने लगे। मैं जिस काम को नया अनुभव सोच रही थी उससे सम्बन्धित तो उनके पास ढेरों अनुभव हैं। मैंने इत्मीनान से एक-एक को सुना। एक बच्ची प्रियंका बताने लगी, हां मैम, ऐसा करने पर स्कूल बहुत अच्छा लगता है। रास्ते में एक स्कूल हमने देखा है उसकी दीवारों पर बहुत सारे बच्चों व जानवरों के चित्र बने हुए हैं। मैम हम तो सोचते हैं कि काश हमारे स्कूल की दीवारें भी ऐसी होती।
राधिका, अंजू, रूपा कहने लगी मैम हमारी मां तो गांवों में दीवारों को लीप-लीपकर उन पर बहुत ही सुंदर चित्र बनाती हैं हम भी उनके साथ चित्र बनाते हैं। कई बच्चों ने मुझे गेरु से चित्र बनाना, चावल के आटे को भिगाकर पीसकर रंग डालकर दीवारों पर चित्र बनाने के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि गांव में तो हम सभी अक्सर ऐसा करते हैं पर चमकदार पेंट से कैसे चित्र बना पायेंगे हम नहीं जानते। मैंने उन्हें बताया कि पेंट से तो चित्र बनाना और आसान होगा। आज पूरा दिन हमारा बातचीत में ही चला गया गया था कोई विषय पर काम न कर पाने का दुख हुआ परंतु आज अपने बच्चों को पहले से और अधिक जान पाने की खुशी थी।
‘रोज आधे घंटे चित्रों को लेकर होती थी बात’
अब हमने करीब तीन दिन रोज आधे घंटे इसी पर बात की कि कैसे चित्र बनाए जाए? कौन से वो चित्र हों जिन्हें देखकर बच्चे खुश हो और विद्यालय के करीब आ सकें। बातचीत में मैंने पाया कि सभी बच्चे अधिकतर जानवरों के चित्रों में रूचि ले रहे हैं, तितलियां उनको आकर्षित करती है, फूल, झूले, पेड, खेलते हुए बच्चे इन्हीं सब चीजों को वो अपने इर्द-गिर्द देखना चाहते हैं।
तभी राधिका, लक्ष्मी किताब दिखाते हुए बोले ये जो आपने हमें आसपास की किताब में में वर्ली आर्ट के बारे में पढ़ाया था यह बहुत आसानी से बन जाती है। हम इसे गांव में भी बना चुके हैं। यह बहुत सुंदर भी लगता है और हम इसे जल्द ही तैयार भी कर पायेंगे। कई विचार आ चुके थे अब हमें रोज कुछ चित्र जिन्हें देखकर दीवारों पर बना सके एकत्रित करने थे। कुछ मैंने मोबाइल पर इंटरनेट से निकाले बच्चों को मोबाइल पर चित्र दिखाकर इस पर हमने विचार किया कि दीवार पर कौन से चित्र अच्छे लगेंगे। इस तरह से करीब एक सप्ताह तक रोज आधे घंटे का समय देकर हम इस पर बातचीत करते रहे।
बच्चे बहुत उत्साहित थे वे इंटरनेट में भी लाईब्रेरी की किताबों में चित्र ढूंढते हुए मुझे दिखाई पड़ते। एक सप्ताह बाद लगभग हम मिलकर तय कर चुके थे कि कौन से चित्र बनाए जायेंगे और कहां-कहां पर। कक्षा के बरामदे की दीवार पर हरा पेंट हो रखा था। उस पर वर्ली आर्ट बनने का बच्चों को ही निर्णय था। अब एक बच्चे रोहित को मैं अपने साथ रंग खरीदने के लिए लेकर गई। उसे बार-बार लग रहा था कि वह अच्छे चित्र नहीं बना पाता वह दुखी था। मैं उसे भी किसी भी तरह से इस प्रक्रिया में भागीदार बनाना चाहती थी। वह बहुत खुश था। जाते-जाते वह सबकी पसंद के रंगों के बारे में पूछना नहीं भूला और रंग खरीदते हुए वह बड़े उत्साह से दुकानदार को रंग बता-बता कर अपने पास रख रहा था और साथ ही साथ मुझसे बार-बार पूछता ‘मैम ठीक है न’।
अब हमने रोज छुट्टी से एक घंटे पहले का समय दीवार पर चित्र बनाने के लिए निश्चित किया और बच्चों से यह वायदा भी लिया कि अगर पूरे दिन ठीक से अपने अन्य विषयों के काम को करेंगे तभी दीवार पर पेंटिग बनाने के लिए समय दे पाना सम्भव हो सकेगा अन्यथा नहीं।
इस तरह बच्चों ने कभी किताबों से चित्र देखकर कभी मेरे मोबाइल पर देखकर तो कभी अपनी कल्पना से सहारे चित्रों को बनाना शुरू किय। सबसे पहले वर्ली आर्ट के चित्र बरामदे में बनाने के लिए राधिका, प्रियंका, मुन्ना, शिखा, अभिषेक तैयार हो गए। दीपक, विशाल ने फटाफट दीवार धो डाली, अनिल सूरज ने उसे कपड़े से पोंछ-पोंछ कर सुखा डाला, कुछ बच्चे किताबें ले आए, कुछ ने बार-बार ब्रश को साफ करना, पानी लाना आदि काम सम्भाले और शुरू को गया निर्जीव, मूक दीवारों पर बच्चों की कल्पनाओं और चित्रों से उसका सजीव बनने का सिलसिला। मैंने बच्चों को बाहर छोड़ दिया और कक्षा में कुछ बच्चों के साथ उनकी रुचि के अन्य विषयों पर काम करने लगी।
छुट्टी का समय होने को था बच्चे मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचते हुए बाहर बरामदे तक ले आए। वर्ली आर्ट अलग-अलग चित्र कहीं पानी भरते हुए औरतें, चोटी गूंथथे हुए सखी, बैल, गाड़ी, घोडा, नृत्य, वाद्ययंत्र (ढोल आदि), सूरज, खाना पकाते हुए मां, आग पर रखा हुआ खाने का पतीला, बारिश, बादल, पेड़, नाव सभी कुछ दिखा-दिखा कर वह मुझे उनसे जोड़-जोड़ कर कुछ न कुछ कहानी बना-बना कर सुनाते जाते। मैंने उनका काम देखने और उन्हें सुनने के बाद न जाने कितनी बार उन्हें सराहा। मुझे अपने बच्चों में भविष्य के लिए अपार सम्भावनाएं नजर आईं।
अगले दिन जब मैं सुबह स्कूल आई तो सुबह सभी कक्षाओं के बच्चे चित्रों से भरी दीवार के सामने खड़ेथे और न जाने कितनी बातें, कहानियां, चित्रों से जुड़ रही थी। वह आपस में उनके बारे में बातचीत कर रहे थे। सभी अध्यापकों व साथियों से प्रशंसा मिलने पर बच्चे बहुत प्रसन्न और उत्साहित थे।
अब उन्होंने दूसरी दीवार पर काम शुरू करा। सभी ने अपना-अपना काम सम्भाला। कोई रंग लाया, किसी ने सफाई की, कोई दीवार पर छोटे-छोटे गड्ड़ों को पीओपी से भर रहा था, सभी कुछ न कुछ कर रहे थे। सचमुच मिलजुलकर काम करने का एक अलग ही मजा है। सब बच्चे उसमें रम जाते हैं और हँसते बतियाते हुए काम को बहुत जल्दी कर पाते हैं।
‘बच्चों ने दीवार को पेंटिंग के लिए खुद ही बाँट लिया’
इसी तरह से दूसरी दीवार पर रंग करने के लिए कुछ बच्चे और उनके साथ जु़ड़ गए। उन्होंने खुद ही दीवार को बांट लिया और आधी-आधी दीवार पर अलग-अलग बच्चे चित्र बना रहे थे। बनाते-बनाते जब पेंट ब्रश चलाने में उनके हाथ सध गए तो उन्होंने चॉक को किनारे रख दिया और सीधे ही ब्रश से चित्र बनाने लगे। इस तरह से बच्चों ने तीन दीवारों को सजीव बना डाला। वो अपने काम से बहुत खुश थे और मुझे बार-बार बोलते ‘मैम ये तो किसी बडे पेंटर का काम लगता है।’
मैं देख रही थी सभी बच्चे आजकल इन चित्रों पर हाथ फेर-फेर कर उनसे अक्सर बाते करते और यही तो मैं चाहती थी। अभी कुछ दीवारों पर चित्रण करना शेष है आशा है वह भी हम जल्दी ही पूरा कर पाएंगे। इन दीवारों पर चित्रण का काम लगभग अब पूरा हो ही गया है तो मुझे उस बच्चे की याद आई जो मेरे अन्दर इस काम को करने के लिए प्रेरणास्रोत बना था और कहीं न कही मुझे उसका और उस जैसे बहुत से प्यारे-प्यारे बच्चों का इस वर्ष इंतजार है जो प्रवेश लेने के लिए मेरे विद्यालय में आयेंगे और अपने नन्हे-नन्हे हाथों से इन चित्रों को छूकर इनसे बात करेंगे।
(लेखक परिचयः यह आलेख सहायक अध्यापक निवेदिता ने लिखा है। वर्तमान में आप देहरादून के रायपुर ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय ननूरखेडा में कार्यरत हैं ।आप एजुकेशन मिरर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं। वीडियो कंटेंट व स्टोरी के लिए एजुकेशन मिरर के यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें। )
Very nice work…activity based study is too beneficial and important for children..in primary label it’s too necessary…sarahniy prayas balmn KO smjhne or unse prerna Lene ka,.