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शिक्षक प्रोत्साहन सिरीजः ‘मेरे शिक्षक बच्चों के नाम के साथ ‘जी’ शब्द लगाकर संबोधित करते थे’

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इस दुनिया में जीवन को गरिमापूर्ण नजरिये से देखने और बरतने के लिए जरुरी बातों को सीखने-सिखाने में मेरे परम आदरणीय गुरुजनों की विशेष कृपा रही है। मेरे लिए सभी गुरुजन प्रातः स्मरणीय एवं वन्दनीय हैं।

इसके अतिरिक्त उन सभी मित्रों के प्रति ह्रदय में सदैव कृतज्ञता का भाव विद्यमान रहा है, जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया, मुझे सीख दी, मेरे समक्ष चुनौतियाँ पेश की और इस तरह से मुझे आगे बढ़ने के लिए अभिप्रेरित किया। यहाँ पर में उन गुरुजनों का विशेष उल्लेख करना चाहूँगा, जो मेरे विद्यार्थी जीवन के अलग-अलग दौर में मेरे लिए अनुकरणीय रहे और जिन्होंने बहुत हद तक मेरे जीवनक्रम को प्रभावित किया।

मेरी प्राथमिक कक्षाओं में आदरणीय श्री धरम राम जी, उच्च प्राथमिक कक्षाओं में आदरणीय श्री भाष्कर पन्त जी, श्री माधवानंद चौबे जी, श्री धरनीधर उपाध्याय जी मुझे हमेशा से याद आते रहे। हाईस्कूल कक्षाओं में आदरणीय श्री मोहन चन्द्र उपाध्याय जी। इंटरमीदिएट कक्षाओं में हिंदी विषय के अध्यापक श्री बी. एल. गुप्ता जी। स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं में आदरणीय प्रो0 बी. डी. अवस्थी सर, प्रो0 पी. सी. कविदयाल सर, प्रो0 टी. डी. जोशी सर की अमित छवियाँ मेरे मनो-मस्तिष्क में सदैव बनी हुई है।

इसी प्रकार प्रो. वी. के. शर्मा अपनी सरलता एवं सहजता के कारण हमेशा शर्मा अपनी सरलता एवं सहजता के कारण हमेशा रहेंगे। प्रशिक्षक कैरियर के दौरान आदरणीय श्री कार्तिकेय मिश्र का आशीर्वाद मुझे मिला, वस्तुतः  वस्तुतः पेशेवर अभिवृत्ति एक शिक्षक के रूप में यतकिंचित मुझे में विकसित हो सकी तो यह कार्तिकेय सर की अनुकम्पा का प्रतिफल मात्र है।

बच्चों के नाम में जी लगाकर संबोधित करने वाले शिक्षक

यहाँ पर उक्त सभी आदरणीय गुरुजनों के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान रखते हुए, अपने उच्च प्राथमिक कक्षाओं में गणित विषय पढ़ाने वाले गुरु जी आदरणीय श्री माधवानंद चौबे जी के बारे में बताना चाहूँगा। जब आप प्रथम बार हमारी कक्षा 8 में पधारे और बच्चों से परिचय लिया, अपना परिचय दिया। अगले ही क्षण आपने हम बच्चों के नाम के साथ जी शब्द लगाकर संबोधित करना प्रारम्भ किया, जैसे रमेश जी, केवल जी आदि आदि।

यह वर्ष 1978 की माह जुलाई की बात है। वस्तुतः, हम बच्चे तो इस तरह के सम्बोधन से न तो परिचित थे और न ही अभ्यस्त। इसके बाद भी आने वाले समय में आपके व्यवहार में बहुत सारी बातें हम बच्चों ने (मैंने तो विशेष रूप से) महसूस की, जैसे समय की पाबन्दी, सभी विद्यार्थियों के साथ सामान व्यवहार, शारीरिक दंड न देना, किसी भी प्रकार का मानसिक उत्पीडन न करना, सभी को सामान अवसर देना, आदि-आदि।

अवचेतन में उन मूल्यों की छाप जरूर पड़ी

ये सभी बातें मेरे मन मस्तिष्क में बैठ गयीं थी। यद्धपि में उस उम्र में इन बातों को ठीक वैसे ही ग्रहण नहीं कर रहा था, यह तो आज उनके कक्षा में और कक्षा के बाहर के व्यवहार का पुनः स्मरण करता हूँ इनमें निहित मूल्यों को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ। परन्तु इतना तय है कि मेरे अवचेतन में इन मूल्यों की छाप अवश्य पड़ी होगी।

पत्र लेखन की गतिविधि

पत्र लेखन की गतिविधि में शामिल होते बच्चे।

बाद के वर्षों में अवचेतन मस्तिष्क में गहरे से पैठी इस छवि ने मेरे व्यवहार को रूपाकार देने में अहम् भूमिका निभायी, यह बात में सदैव महसूस करता हूँ। बाद में, मैंने अपने अध्यापकीय जीवन में इन मूल्यों का निर्वहन करने की भरसक कोशिश की है। आदरणीय गुरु जी के द्वारा अपने व्यवहार से जिन मूल्यों का बीजारोपण किया था, उन्होंने, मेरे शिक्षक जीवन को एक अहम् दिशा दी।

यदि इसे आत्म-प्रशंसा न समझा जाए तो मैं यहाँ पर जरुर उल्लेख करना चाहूँगा कि शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए 15 वर्ष और 10 मांह की समयावधि में कभी भी विद्यार्थियों को शारीरिक दंड नहीं दिया, मानसिक उत्पीड़न तो मेरे स्वभाव में था ही नहीं। यदि यह संभव हो सका तो इसमें मेरे परम आदरणीय गुरु जी श्री माधवानंद चौबे जी की कृपा सन्निहित है और उनके द्वारा प्रदर्शित मूल्य व्यवहार की गहरी छवि जो मेरे मन मैं अभी भी विद्यमान है।

( डॉ0 केवल आनन्द काण्डपाल वर्तमान में उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद में रा0 उ0 मा0 वि0 पुड्कुनी (कपकोट) में प्रधानाचार्य के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन, शोध व अध्यापन में सक्रियता  से काम कर रहे हैं। इस लेख के बारे में आप अपनी राय टिप्पणी लिखकर या फिर Email: kandpal_kn@rediffmail.com के माध्यम से सीधे लेखक तक पहुंचा सकते हैं। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया जरूर साझा करें।)

1 Comment on शिक्षक प्रोत्साहन सिरीजः ‘मेरे शिक्षक बच्चों के नाम के साथ ‘जी’ शब्द लगाकर संबोधित करते थे’

  1. शिक्षक के आचरण का बच्चों पर , उनके चेतन और अवचेतन व्यवहार पर गहरा प्रभाव बना रहता है।
    गुरु ऋण की बात कई बार कही जाती है।वास्तव में हम सब पढ़ लिख कर यथायोग्य कमाते हैं। संवेदनशीलता के साथ अपने परिवार, माता पिता की सेवा भी करते हैं। अपनी कमाई का सारा रुपया विभिन्न उद्यमों में निवेश करता है।
    किंतु क्या कभी हम अपने गुरु जनों की तरफ मुड़ कर देखते हैं, क्या एक भी रुपये खर्च करने की कोशिश करते हैं। उनकी जरूरतों में क्या हमारा प्रतिभाग होता है?

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