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बेहतर संवाद के लिए जरूरी है ‘भयमुक्त माहौल’

आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद जितेंद्र महला ने गाँवों में स्कूलों के साथ काम करने का निर्णय किया। गांधी फेलोशिप में दो साल प्रधानाध्यापकों को नेतृत्व विकास का प्रशिक्षण देने के बाद वर्तमान में बतौर शिक्षक प्रशिक्षक कार्य कर रहे हैं। शिक्षा से जुड़े मुद्दों में बच्चों का सीखना कैसे सुनिश्चित हो, शिक्षकों की स्कूलों में नियमित उपस्थिति हो, वे अपने भविष्य के लिए बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ न करें, ऐसे मुद्दे पर वे निरंतर लेखन करते रहे हैं।

बच्चे की भाषा में हो पढ़ाई, मीडियम और मैसेज की लड़ाई, भारत में प्राथमिक शिक्षाअच्छे संवाद की कुछ बुनियादी शर्तें है, “निर्भीक माहौल, सरल भाषा, एक-दूसरे का सम्मान, सहमति और असहमति के बावजूद एक-दूसरे को सुनने का साहस और सबसे जरूरी संवाद में भाग ले रहें किसी भी लिंग, पद, जाति, धर्म और क्षेत्र के लोगों को अपनी बात कहने का अवसर।”

ये सब बातें एक बेहतर संवाद का माहौल बनाती हैं। अच्छे और बेहतर संवाद के यहीं मायने हमारी कक्षा पर भी लागु होते हैं।

कक्षा में अमूमन शिक्षक का डर होता है कि अगर बच्चों के साथ मित्रतापूर्ण ढंग से पेश आए तो बच्चे हमारी बात नहीं मानेंगे। ऐसे में शिक्षक ही पूरी कक्षा में अपनी बात एकतरफा ढ़ंग से कहता जाता है। बच्चे सिर्फ सुनते हैं। इस एकतरफा बातचीत से अमूमन कक्षा बोझिल हो जाती है। यह डर शिक्षक के अलावा किसी तथाकथित होशियार-पढ़ाकू बच्चे का भी हो सकता है जो बाकी सभी बच्चों से ज्यादा कक्षा में महत्व रखता है। सभी शिक्षक उसी को काबिल बताते हैं।

शिक्षक की भाषा

दूसरे बच्चें गलत हो जाने के भय से डरते हैं कि कहीं वे मूर्ख ना करार दे दिए जाएँ। जैसा कि कुछ बच्चों को पूरी कक्षा और स्कूल मूर्ख मानती हैं। ऐसे बच्चें कभी अपनी बात कहने में सहज नहीं हो सकते।

डर और भी बहुत सारे हो सकते हैं, जैसे लिंग, जाति, धर्म और अमीर-गरीब का। जैसे अमूमन हमारे समाज में लड़कियाँ, दलित, पिछड़ें, आदिवासी और धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक वर्ग बहुत कम बोलते हैं। उन्हें सामने मौजूद वर्चस्व का भय रहता है। समाज का यह असर स्कूल की कक्षा में भी होता है। जहाँ लड़कियाँ, दलित, पिछड़ें, आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चे बहुत कम बोलते हैं। वे अमूमन समाज से कटा हुआ महसूस करते हैं। मौटे तौर पर यहीं नियम है लेकिन अपवाद भी हो सकते हैं। कक्षा में शिक्षक के द्वारा बोले जाने वाली भाषा और शब्दों के चुनाव का भी संवाद पर बहुत निर्णायक असर पड़ता है।

बच्चों की भाषा

अक्सर बच्चे अपनी स्थानीय भाषा में सहज महसूस करते हैं, लेकिन जब कक्षा में कोई दूसरी भाषा काम में ली जाती है, तब उन्हें दिक्कत का सामना करना पड़ता है। ऐसे माहौल में शिक्षक और बच्चों दोनों को एक-दूसरें की मदद करनी होती है, जिससे कि वे कक्षा में अपनी-अपनी भाषा बोले सकें और एक-दूसरे से सीख सकें। इसी बात को ध्यान में रखते हुए शिक्षाविद कक्षा में एक से ज्यादा भाषाओं के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की बात करते हैं। क्योंकि बच्चों के वास्तविक अनुभव तो उनकी अपनी ही भाषा में होते हैं। अगर उसको कक्षा में अभिव्यक्त होने से रोका गया तो यह उन बच्चों के साथ भेदभाव होगा।

पठन कौशल का विकासइस झिझक को तोड़ने के लिए बच्चों की भाषा को कक्षा में स्थान देना चाहिए। उनकी भाषा के लिए सम्मान का भाव शिक्षक के व्यवहार से जाहिर होना चाहिए ताकि बच्चों को लगे कि वाकई उनकी भाषा के लिए क्लास में जगह है। तभी वे अपनी बात को बेझिझक लोगों के सामने रख पाएंगे।

उदाहरण के तौर पर एक स्कूल में बच्चों के साथ शिक्षक बात कर रहे थे कि कौन-कौन से जानवर दूध देते हैं। तो एक बच्चे ने हाथी का नाम लिया। इस पर सारे बच्चे हँसने लगे। तो शिक्षक ने बच्चे की बात का समर्थन करते हुए कहा कि बच्चा सही कह रहा है।”

इसी तरीके से एक भाषा के कालांश में शिक्षक ने कहानी की किताब में तितली का चित्र दिखाते हुए बच्चों से पूछा तितली क्या कर रही है? बच्चों ने कहा पाबुला फिरे हैं, यानी तितली उड़ रही है। बच्चों की स्थानीय भाषा में तितली को पाबुला कहा जाता है। उड़ने के लिए बच्चे ने अपने स्थानीय भाषा के शब्दकोश से फिरने जैसे शब्द का चुनाव किया। यह दर्शाता है कि बच्चे कक्षा में होने वाले संवाद में सहज महसूस कर रहे हैं।

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