शिक्षक प्रोत्साहन सिरीज़ः ‘कुछ कर गुजरने वाले शिक्षक बहानों की तलाश नहीं करते – लुबना वसीम’
ज़िंदगी वाकई एक सफ़र है। मुझे इसका अहसास सबसे पहले बी. टी. सी. की पढ़ाई पूरी करने और फिर स्कूल ज्वाइन करने के बाद हुआ। बी. टी. सी. की पढ़ाई के दौरान मन में एक कसक थी कि बेसिक स्कूलों के बारे में बहुत कुछ सुन जो रखा था, बच्चे गन्दे आते हैं, शिक्षक पढ़ाते नहीं, पैसों का रोना और संसाधनों की कमी। इन सबके लिए कोई शिक्षक को बुरा कहता तो कोई किसी और को इसके लिए जिम्मेदार ठहराता। मैंने बी. टी. सी. के दौरान बहुत कुछ सीखा। मेरे दिल में जुनून था सीखी हुई सब बातों को धरातल पर लाने का। बेसिक शिक्षा की तस्वीर को बदलने का ज़ज़्बा, शिक्षक की गरिमा को वापस दिलाने का जुनून रगों में उछाल मार रहा था। इस सपने को में मैं बी. टी. सी की पढ़ाई वाले दिनों में जी रही थी।
पहली ज्वाइनिंग के अनुभव
कुछ समय बाद फिर वह दिन आ भी गया। मेरा शिक्षक बनने का सपना पूरा हुआ और मेरा सामना उस हक़ीक़त से हुआ जिनसे एक शिक्षक रोज़ दो-चार होता है। मुझे मक्खनपुर,सेंटेंस, फिरोजाबाद में पहली नियुक्तिी मिली। उस समय मेरी कक्षा में ही 102 बच्चे और मैं उनकी अकेली शिक्षिका। इस ज़मीनी स्थिति के सामने मेरे सारे ख़्वाब जैसे आँखों के सामने तारे बनकर घूमने लगे। बी.टी. सी की पढ़ाई के दौरान सीखा हुआ सब धुंधला सा होने लगा। मगर हार मानना मेरी फितरत में शामिल नहीं था। चुनौती हर जगह होती है, बड़ी या छोटी। ये मैंने खुद अपने आप को समझाया। बाहरी परिस्थितियों की बजाय मैंने आंतरिक प्रेरणा और स्व-प्रयास से चीज़ों को बेहतर करने पर ध्यान दिया। मेरे पहले स्कूल में कुल चार शिक्षक थे और 270 से ज्यादा बच्चों का नामांकन था।
‘समस्या में उलझने की बजाय, मैंने समाधान खोजा’
इससे मुझे समस्या में उलझने की बजाय समाधान तलाशने में मदद मिली। मैंने खोजे हुए समाधान को स्कूल स्तर पर लागू करने पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया। अपने विद्यालयमें मैंने बच्चों को छोटे-छोटे समूह में बिठाया। कौशल व क्षमताओं के आधार पर बच्चों की जरूरतों को समझने का प्रयास किया।
जिन बच्चों को हिन्दी वर्णमाला आती थी, जिनको अक्षरों की पहचान नहीं थी ऐसे दो समूह बनाये। मेरी कोशिश रहती थी कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों को ब्लैकबोर्ड तक लाया जाये। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में सभी को ला पाना आसान न था। इसलिए कुछ बच्चे ही इनाम स्वरूप ब्लैकबोर्ड तक आ पाते। मेरे इतनी बड़ी कक्षा को डील करना बहुत बड़ी चुनौती थी।
बच्चों को सीखने के लिए प्रेरित किया और अच्छा माहौल दिया
परंतु मेरे लिए एक प्लस प्वाइंट था कि पहली कक्षा के लिए पाठ्यक्रम पूरा करने का इतना ज्यादा दबाव नहीं होता। बच्चों को सिखाना था, अलग-अलग तरीकों से और कुछ बच्चों के सीखने की गति तो आश्चर्यजनक थी। ये बच्चे तो कक्षा दो और तीन के बच्चों से प्रतिस्पर्धा करने लगे थे।
इसमें जो बात सबसे कारगर साबित हुई, वह थी अपने साथी भाई बहनों के साथ जीत हार की टेंशन के बग़ैर प्रतिस्पर्धा करना। बच्चों ने इस काम को खेल भावना से ही किया और इसके परिणाम अच्छे रहे।
कभी खेल, कभी कला तो जैसे पढ़ाई का हिस्सा बन गये। बच्चे मन लगाकर पढ़ते और सीखते। जगह की कमी अभी भी बहुत सी गतिविधियों को करने में बाधक बन रही थी।
प्रधानाध्यापिका की भूमिकाः एक अवसर और चुनौती भी
ज़िंदगी ने रुख बदला और वर्ष 2013 में मुझे प्रमोशन मिला। मुझे विद्यालय मिला फुलायची, बच्चे 99 और यहां दो अध्यापक थे। मगर इस बार भूमिका मिली प्रधानाध्यापक की। बदलाव व परिवर्तन की जिम्मेदारी भी मिली और चुनौती भी। लेकिन यहां के लोगों की सोच को बदलना आसान नहीं था। लेकिन हौसले के आगे सब चुनौतियां पस्त हो जाती हैं, इस बात ने मेरे हौसला बनाये रखा। मैं अपने विद्यालय में साथी शिक्षकों और समुदाय के सहयोग से धीरे-धीरे बच्चों का नामांकन और उपस्थिति बढ़ाई। इसके लिए घर-घर सम्पर्क किया। इन प्रयासों से मुझे अभिभावकों को समझाने और बच्चों को स्कूल में नियमित लाने में सफलता मिली।
अपने विद्यालय में बच्चों में सामान्य ज्ञान की समझ विकसित करने के लिए मैंने एक कारगर नवाचार अपनाया जिसमें बच्चों को वही नाम दे देते थे जिनके बारे में बताते थे जैसे भारत के पहले प्रधानमंत्री कौन थे, इसका उत्तर था जवाहरलाल नेहरू , नितिन आज तुम्हारा नाम जवाहरलाल नेहरू है। सभी बच्चे नितिन को इसी नाम से पुकारेंगे। इसके साथ ही जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर भी कक्षा में लगा दी। इस तरह बच्चों में सामान्य ज्ञान को लेकर अच्छी समझ पैदा हो गई।
इंग्लिश मीडियम सरकारी स्कूल के अनुभव
बतौर शिक्षक इस सफर में फिर एक नया मोड़ आया। अंग्रेजी माध्यम में परिवर्तित दो विद्यालयों में से एक में लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के बाद मुझे फिर से प्रधानाध्यापिका की जिम्मेदारी मिली। हिन्दी माध्यम वाले विद्यालय के बच्चों का पहली बार अंग्रेजी माध्यम से सामना उनके लिए काफी चुनौतीपूर्ण था। जो बच्चे शुद्ध हिन्दी पढ़ना और बोलना भी नहीं जानते थे उनको इंग्लिश स्पीकिंग कराना बड़ी चुनौती से कम नहीं था और इसके लिए मेहनत भी बहुत करनी पड़ी। राइमिंग वर्ड्स की ड्रिल और सनटेन्स ड्रिल को मॉर्निंग असेंबली का हिस्सा बनाया। रोज़ाना साइंस पज़ल,लर्निंग विथ एक्टिविटी और प्रोजेक्टर का इस्तेमाल करके पढ़ाई को कक्षा-कक्ष में सामान्य बना दिया। इससे बच्चों का शैक्षिक स्तर सुधरा और वे अंग्रेजी भाषा में थोड़ा-बहुत बोलने भी लगे। मौखिक भाषा विकास पर इस तरीके से काम किया।
इसी मेहनत का परिणाम है कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों का ध्यान भी हमारे विद्यालय की तरफ गया। आज ब्लॉक से लेकर राज्य तक प्राइमरी स्कूल सिविल लाइन अपनी पहचान रखता है। इसका श्रेय बेसिक शिक्षा विभाग की तरफ से समय-समय पर मिलने वाले प्रोत्साहन और शिक्षा से जुड़े अन्य साथियों के निरंतर सहयोग को जाता है। जिन्होंने बड़ी उदारता के साथ हर जरूरत में सहयोग किया। लेकिन कुछ लक्ष्य अभी भी प्राप्त करने बाकी हैं। विद्यालय की हर कक्षा को स्मार्ट क्लास बनाना इस सत्र 2020-21 का प्रमुख लक्ष्य रहेगा। इसके साथ ही साथ प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल छात्रों की संख्या बढ़ाने जैसी बातें भविष्य की योजना का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
‘कुछ कर गुजरने वाले शिक्षक बहानों का इंतज़ार नहीं करते;
आप सभी से सिर्फ इतना ही कहना है कि चुनौतियां बहुत होंगी राह में, किन्तु, परंतु, अगर, मगर, काश नहीं करते, कुछ कर गुजरने वाले शिक्षक बहानों की तलाश नहीं करते। मेरे स्कूल में जो नामांकन 2015 से पहले 151 था वो आज 289 है। मेरे विद्यालय में वर्तमान में 4 शिक्षक हैं। मेरे विद्यालय में केवल तीन कक्षा-कक्ष हैं। लेकिन मेरा गहरा विश्वास है कि संसाधनों की कमी न तो अभी हमारे पढ़ाने और सिखाने के ज़ज़्बे को कम कर पाती है और न ही बच्चों के सीखने की जिज्ञासा को। भविष्य में भी यही ज़ज़्बा कायम रहे इसके लिए आप सभी के प्रोत्साहन और आशीर्वाद की अभिलाषी।
(लेखक परिचयः लुबना वसीम ने बतौर शिक्षक अपनी यात्रा बीटीसी की पढ़ाई के तुरंत बाद होने वाली शिक्षक भर्ती में सफलता प्राप्त की थी। उन्होंने बतौर शिक्षक हर मुश्किल का सामना हौसले और तैयारी के साथ किया। कभी हार न मानने का जज्बा रखने वाली लुबना वसीन वर्तमान में प्राथमिक विद्यालय, सिविल लाइन, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश में इंग्लिश मीडियम स्कूल की प्रधानाध्यपिका हैं। यह इंग्लिश मीडियम स्कूल उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग व सरकार की एक पहल है जो विस्तार पा रही है। पढ़िए उनकी प्रेरित करने वाली कहानी और पहली बार शिक्षक बनने के अपने अनुभवों के टिप्पणी के रूप में जरूर लिखें।)
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आपकी कहानी से मैं अपनी SEI process को याद कर रहा हुँ मैं भी आपकी तरह ही बच्चों को ब्लैक बोर्ड से जोड़ ना का काम किया उन्हें नियमित स्कूल आने के लिये प्रेरित करना,,,,,,,, आपकी कहानी शिक्षकों को प्रेरित कर रही है ।
आकाश
गांधी फेलो DTP NITI
बहराइच
Agar aise teacher ho to sab raste asan ho jaye kaise lubna baseem ji ne bacchon ko samjhkar unke anusar unko shiksha di ye sarahniye hai
Very inspiring 👏👏👏👏