Trending

“पीपी सर जैसा निश्छल प्रेम कहीं और नहीं मिला!!”

pp-sir-1

छात्र-छात्रों का मार्गदर्शन और सहयोग पीपी सर की सबसे प्रमुख विशेषताओं में से एक है।

पी.पी. सर यानि बाबा पर कुछ लिखना हो तो शब्द कम पड़ जाते हैं, उन्हें किसी लिखावट या इबारत में पूरा पिरो पाना मेरे लिए तो संभव नहीं है, फिर भी जिंदगी से जुड़े कुछ निजी अनुभवों को आपसे साझा कर रहा हूँ। मैं ये पन्ने उस वक्त लिख रहा हूँ, जब कुछ दिन पहले ही एक सुखद सूचना मिली है। इसके लिए सर को बहुत-बहुत बधाइयां। बाबा अपने आप में एक पाठशाला हैं,जिन्होंने हजारों पत्रकार और बेहतर इंसान गढ़े हैं।

सबसे पहले आपको बता दूं कि पुष्पेंद्र पाल सिंह या पीपी सर को हम सब प्यार से बाबा ही कहकर बुलाते हैं, उन्हें ये नाम उनके विद्यार्थियों ने ही दिया है। मैं सबसे पहले बाबा से माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय (यानि एमसीयू) के इंट्रेस एग्जाम का रिटेन टेस्ट क्लियर होने बाद मिला था, जब वे इंटरव्यू वाले लास्ट राउंड में पैनल के तौर पर सामने बैठे थे। उनके साथ में चौरे सर और राखी मैम सहित एक अन्य सज्जन भी पैनलिस्ट में थे। सभी के सवाल होने के बाद बाबा ने ही इंटरव्यू का मुझसे आखिरी सवाल पूछा कि “पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो? “

pp-sir-and-modi

अपने नेतृत्व कौशल से पुष्पेन्द्र पाल सिंह ने अपने विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया है।

मैंने कहा- “जी मुझे लिखने का शौक है, लगता है बस यही कर सकता हूँ। बस इसीलिए आना चाहता हूं।” वे बोले “अच्छा तो क्या लिखा है, कहाँ छपा है, दिखाओ। मैंने कहा “जी बस कविताएं लिखी हैं और स्कूल-कॉलेज के मंच पर सुनाई भी हैं, कुछ छपा तो नहीं है।” तो उन्होंने कहा- ” कुछ अपना लिखा सुनाओ।” मैंने मुम्बई 2002-03 के बॉम्बे ब्लास्ट के समय व्यथित होकर लिखी गई अपनी एक पुरानी कविता ओजपूर्ण स्वर में सुना डाली। बाबा बोले – “बहुत अच्छा, अब आप बाहर जाइये और फाइनल लिस्ट का इंतजार करिये।”

पीपी सर से पहली मुलाक़ात की याद

ये मेरी बाबा से पहली मुलाकात थी, उसके बाद अगली मुलाकात तो विश्वविद्यालय में ही हुई। मुझे नहीं पता सेलेक्शन का आधार वो कविता रही या कुछ और परन्तु मैं विश्वविद्यालय में दाखिला पा चुका था। यहां बाबा को नजदीक से जानने समझने का मौका मिला। पहली बार ऐसा लगा जैसे किसी अभिभावक के रूप में कोई शिक्षक मिला हो। दाखिले के ठीक बाद बाबा की एक लंबी क्लास हुई करीब 2 से 3 घंटे की, जिसमें उन्होंने खाने की ताकीद से लेकर रहने तक और पत्रकारिता के पेशे की अन्य बारीकियों से रूबरू कराया।

हमें समझाया कि अब इस पेशे में आए हो तो इसकी चुनौतियों को सबसे पहले समझ लो। यहां डेट लाइन के प्रेशर के बीच सटीक और सही जानकारी परोसने का जो जोखिम है, उसमें कई बार खुद के लिए वक्त न के बराबर मिलता है। ऐसी तमाम समझाइशों का दौर बाद में लगातार दो साल तक चलता रहता था।

pp-sir-2

विश्व प्रसिद्ध धर्मगुरू दलाई लामा के साथ पुष्पेन्द्र पाल सिंह।

हम लोगों के लिए यह एक बूस्टर डोज था, जब भी बाबा को लगता कि लाइब्रेरी, परीक्षा, लैब जनरल ‘विकल्प’ छापने, ‘संगोष्ठी’-परिचर्चा सहित सेमिनार या अन्य प्रायोगिक गतिविधियों में बच्चों का प्रदर्शन गड़बड़ा रहा है। वे 4 से 5 घंटे की एक लंबी क्लास लेते और सब बच्चे सही दिशा में आ जाते। उनके डांटने या समझाने का तरीका ही ऐसा होता रहा कि लगता जैसे पिता जी डांट-समझा रहे हैं। और दूसरी कमाल की बात ये भी रही कि जब भी मस्ती का अवसर होता या कोई सांस्कृतिक आयोजन प्रतिभा आदि होती तो बाबा का एक अलग ही मित्रवत रूप देखने को मिलता, वे हमारे साथ हंसते, गाते और नाचते। उन्होंने विश्विद्यालय में ही विद्यार्थियों के लिए एक घर जैसा माहौल खड़ा कर दिया, ताकि हमें कभी घर की कमी न खले। इसी का सुखद परिणाम रहा कि सीनियर्स और जूनियर्स के बीच भाईयों की तरह रिश्ते बने, जो आज तक कायम हैं।

मुझे याद है कि 2007-09 वाला शिक्षा सत्र जुलाई के बाद ही सही से शुरू हो पाया था। क्योंकि कुछ बच्चे तो एडमीशन लेकर चले गए और कक्षाओं में आना उन्होंने सितंबर में शुरू किया था। यह पहला साल था जब एमसीयू सात नम्बर की किराए की इमारत की जगह एमपीनगर की प्रेस कॉम्प्लेक्स वाली इमारत में आ गया था। हालांकि पहले सेमेस्टर तक हमें लाइब्रेरी के लिए वहीं 7 नम्बर में जाना पड़ता था, जहां बगल में जायका की चाय और कचौरी का लुत्फ उठाया जाता था।

‘घड़ी देखकर नौकरी वाले दौर में ऐसा समर्पण’

मुझे याद है कि उस दौरान बाबा विद्यार्थियों की खाने, रहने, खुद को संभालने आदि से लेकर अन्य तरह की हर मुश्किलातों का हल निकालते रहते थे। मसलन यूनिवर्सिटी की नई इमारत के सारे माले शाम 7 तक अंधेरे में डूब जाते थे, लेकिन बाबा के दफ्तर की बत्तियां रात 11 बजे तक जलती दिखती थीं। वहां सब विद्यार्थी अपनी-अपनी समस्या लेकर बैठे रहते, फिर बाबा सबकी सुनते, सबको समझाते। कभी-कभी तो हमारे पुराने सीनियर्स, विश्विद्यालय और पत्रकारिता से जुड़े किस्से शुरू हो जाते, तो कब शाम से रात 11 बज गए पता ही नहीं चलता था। मुझे याद है कि ये दौर लम्बा चलता और जब तक उनके नोकिया 1600 में घर से उनकी बेटी सानू का 3 से 4 बार फोन न आ जाता, सभा विसर्जित नहीं होती थी। घड़ी देखकर नौकरी करने वाले दौर में मैंने इतना समर्पण और खुलकर प्रेम, मार्गदर्शन देने वाला गुरु अब तक नहीं देखा।

अब भी 2007 की दीपावली और दशहरा मेरे जेहन में ताजा है, जो पहली बार गांव-घर से बाहर भोपाल में ही विश्विद्यालय में मना था। दशहरे वाले दिन हमें सीनियर्स की ओर से भोजपुर में फ्रेशर्स पार्टी मिली थी और हम वहीं से लौट रहे थे। उस रोज मैं जैसे ही थोड़ा असहज हुआ और मेरे आँसू निकल पड़े, तो बाबा ने सबकी नजरों से बचाते हुए मुझे दुलारा था। दीवाली वाले रोज भी पूजा और खाने का कार्यक्रम बाबा ने हम सबके साथ विश्विद्यालय में ही संपन्न किया। मुझे याद है कि लिट्टी-चोखा और चावल बनाया गया था। मिठाई बाजार से आई थी। हम सबने छककर खाया था।

बाबा यूँ ही हर साल आने वाले नए बैच के बच्चों के साथ होली से लेकर ईद और दीवाली तक हर त्यौहार पहले विभाग में ही मनाते थे। जो विद्यार्थी इन त्यौहारों पर घर नहीं जा पाते थे, उन्हें कभी घर की कमी महसूस नहीं होती थी। ईद और होली में तो बाबा के साथ पूरा भोपाल नाप लिया जाता था। उस दौरान भोपाल में मौजूद लगभग हर सीनियर्स के यहां मिठाई और खीर के दौर होते थे।

मैं लिखता चला जाऊंगा तो ये पोस्ट खत्म ही नहीं होगा शायद। क्योंकि बहुत सी बातें हैं, बहुत से किस्से हैं। 2007 से 9 के बीच 2 साल नहीं जैसे एक लंबा वक्त गुजरा हो। बहरहाल मैं यहां वो किस्सा जाहिर करना चाहता हूं, जो मेरे लिये भावनात्मक रूप से एक अलग अनुभव था।

सबसे मुश्किल समय में मिला सपोर्ट अब भी है याद

यह बात पहले सेमेस्टर की ही है, जब इंटरनल एग्जाम शुरू होने वाले थे। तीन इंटरनल देने जरूरी होते थे। मैं एक दे चुका था कि उसके अगले ही दिन अचानक अम्मा के एक्सीडेंट की खबर गांव से आई थी। पता चला उन्हें जबलपुर में भर्ती कराया गया है, सिर पर गम्भीर चोट आई है।

PP-SIR-AND-DIPAK

मैंने बाबा को फोन किया और पूरी बात बताई, तो उन्होंने कहा इंटरनल से तो अपन बाद में निपट लेंगे तुम अम्मा को देखो, तुरन्त ट्रेन पकड़कर जबलपुर निकलो। इस वक्त यही जरूरी है। किसी भी तरह की समस्या हो, तो फोन करना और चिंता मत करो सब ठीक होगा। लगभग अगले 15 दिनों तक मैं डॉक्टर जौहरी के अस्पताल में रहा। पिता जी भी साथ थे। उस समय बाबा हर रोज रात में फोन करते और पूरा हालचाल लेते। सभी सहपाठियों और सीनियर्स के फोन भी भोपाल से आते रहते। मुझे उस दौरान भावनात्मक रूप से एक सपोर्ट की जरूरत थी, क्योंकि मेरे लिए जीवन में यह इस तरह की बड़ी और पहली विपदा थी। उस समय सगे सम्बंधियों के इतर विश्वविद्यालय के सीनियर्स और बाबा का इतना सहयोग मिला कि मैं उस मुश्किल वक्त से उबर पाया।

इसके बाद भी विश्वविद्यालय और वहां से निकलने के बाद भी जब भी कभी पेशागत या व्यक्तिगत परेशानियों से जूझता बाबा का इमोशनल सपोर्ट कभी कम नहीं हुआ। पढ़ाई-लिखाई, डांट-डपट के इतर ये जो प्रेम, अपनापन हमें मिला। इसने हमें व्यवहारिक और भावनात्मक तौर पर बेहतर होने में बहुत मदद की। आज भी विश्वविद्यालय के पांच से छः पीढ़ी के सीनियर्स और बाबा के साथ बने रिश्ते जीवन की असली पूंजी हैं। मैं बाबा को जितना जान और समझ सका हूँ, उससे बस यही कह सकता हूँ कि अपने सगे सम्बंधियों और परिजनों के लिये तो सब जीते हैं। यूँ विद्यार्थियों के लिये अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले विरले ही होते हैं। मुझे तो इतना निश्छल प्रेम कहीं और नहीं मिला।

WhatsApp Image 2020-06-14 at 9.07.28 AM(लेखक परिचयः दीपक गौतम स्वतंत्र पत्रकार हैं। आपने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से मास्टर ऑफ जर्नलिज्म (एमजे) की पढ़ाई की है। आपने मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में एक दशक तक राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर और लोकमत जैसे संस्थानों में सक्रिय पत्रकारिता की है। इसके साथ ही साथ जीवन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर अपने ब्लॉग पर स्वतंत्र लेखन भी करते हैं।)

(शिक्षा से संबंधित लेख, विश्लेषण और समसामयिक चर्चा के लिए आप एजुकेशन मिरर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो कर सकते हैं। एजुकेशन मिरर के यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें। एजुकेशन मिरर के लिए अपनी स्टोरी/लेख भेजें Whatsapp: 9076578600 पर, Email: educationmirrors@gmail.com पर।)

3 Comments on “पीपी सर जैसा निश्छल प्रेम कहीं और नहीं मिला!!”

  1. Durga thakre // July 5, 2020 at 9:26 pm //

    बहुत बढ़िया लेख

    वो हताश था वो उदास था
    मैंने देखा वो बेहद परेशान था
    उलझनों से घिरा हुआ
    अपने ख्वाबों में खोया एक नादान था
    अपने पँखो को निहार कभी
    सँवारने को आतुर था
    मचलता कभी उड़ने को
    हताशा से बाहर आने को बेकरार था
    करता प्रयास बारम्बार
    फिर भी असफल होता निराधार था
    ज्यों मिला उसे गुरुवर का सहारा
    पायी सफलता गुरु का आधार था

  2. Dhiraj Rai // July 5, 2020 at 4:42 pm //

    बहुत बढ़िया लेख। पीपी सिंह जैसे गुरुदेव पर जितना लिखा जाए शायद कम पड़ जाए।

  3. Kaptan gurjar // July 5, 2020 at 4:18 pm //

    बिन गुरु नहीं होता जीवन साकार,
    सर पर होता जब गुरु का हाथ!
    तभी बनता जीवन का सही आकर,
    गुरु ही सफल जीवन का आधार!!
    दीपक जैसे गुरु हम सब को मिले।
    धन्यवाद,
    एजुकेशन मिरर को बहुत बहुत धन्यवाद जो कि हमें समय समय पर ऐसी घटनाओं से रूबरू कराते रहते हैं।

इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें

%d bloggers like this: