समुदाय में बच्चों को पुस्तकालय और लिखने-पढ़ने से जोड़ने के लिए कैसे करें प्रयास?

रचनात्मक लेखन की तैयारी करता एक बच्चा।

“सभी बच्चों के लिए किताबें उतनी ही ज़रूरी हैं जितना साँस लेने के लिए ऑक्सीजन और पीने के लिए साफ़ पानी और ऊर्जा के लिए खाना। किताबों की खूबसूरत दुनिया से ही बच्चे इस जटिल दुनिया को ठीक से समझ सकते हैं।” ये शब्द हैं लेखक पूरन जोशी के जिन्होंने अपने ज़मीनी अनुभवों को आपके साथ साझा किया है। आगे उन्हीं के शब्दों में विस्तार से पढ़िए उनका यह लेख।

यूँ तो इस कोरोना काल में हुए लॉकडाउन में सभी कमजोर वर्गों को बहुत नुकसान हुआ लेकिन अगर सबसे ज्यादा नुकसान किसी का हुआ जो मुझे लगता है वो है सरकरी स्कूलों में पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चों को। दरअसल यहाँ हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि ये वो बच्चे हैं जिनके घरों में पर्याप्त बाल साहित्य नहीं है और उनके अभिभावकों के सामने रोज़ी -रोटी के बड़े सवाल खड़े हैं।

भले ही पहाड़ों में बच्चों का शत-प्रतिशत नामांकन विद्यालयों में है लेकिन अभी ये बच्चे सिर्फ विद्यालय पहुंचे हैं। सभी बच्चों के लिए लिखना-पढ़ना अभी पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं हुआ है। यहाँ लिखने-पढने से मेरा मतलब किताब पढ़ लेने या अपना नाम लिख लेना भर से नहीं है और फिर कभी-कभी विद्यालय पहुंचना भर ही तो काफी नहीं होता है फिर आजकल तो स्कूल पिछले आठ महीनों से बंद हैं।

पीड़ितों का शिक्षा शास्त्रलिखने वाले बाजील के शिक्षा शास्त्री पाउलो फ्रेरे की जीवनी में लिखा है “भूख की वजह से मेरी समझ में कुछ नहीं आता था. मैं पढ़ने में बहुत कमज़ोर नहीं था अलबत्ता मेरे भीतर दिलचस्पी की कोई कमी नहीं थी लेकिन मेरे परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती थी कि मैं अच्छी शिक्षा हासिल कर सकूँ. अनुभवों ने मुझे सिखा दिया था कि सामाजिक स्थिति और पढ़ने-लिखने  के बीच क्या सम्बन्ध होता है.” यह बात इस तथ्य को समझाने में मदद करती है कि ऐसे समाजों में सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों की शिक्षा कितनी मुश्किल है।

समुदाय के साथ संवाद से मिली समाधान की राह

पिछले दिनों सोचा कि कुछ विद्यालयों में शिक्षकों और समुदाय की मदद से बच्चों के साथ फिर से संवाद शुरू किया जाय। यह यात्रा शुरू की ताड़ीखेत ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय सगनेटी के बच्चों के साथ। बच्चों के लिए कुछ पुस्तकें और कुछ लिखने की सामग्री बैग में डाली और बलबीर जी, जो कि वहाँ शिक्षक हैं, के साथ गाँव की ओर चल पड़े। यह विद्यालय रानीखेत तहसील मुख्यालय से 30 किलोमीटर और जिला मुख्यालय से 78 किलोमीटर है। बलबीर जी ने समुदाय में पहले ही सूचित कर दिया था कि हम आ रहे हैं।

सभी बच्चे एक ही घर के बड़े से आँगन में जमा हुए थे। बच्चे हमको देखकर खुश हुए वो नजदीक आना चाह रहे थे। मुझे भी उनको गले लगाने का मन था लेकिन चाह कर भी नहीं लगा पाये। वक़्त-वक़्त की बात है। मैं फिर यहाँ कहूँगा कि यह वक़्त कुछ नयीं इबारतें लिखने का है। स्कूल खुले न खुले लेकिन ज्ञान और समझ को इन बच्चों तक खोलना होगा। यह दौर एक बदहवासी का दौर है ऐसे में शिक्षक बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। इस दौर में सामाजिक – आर्थिक रूप से पिछड़े इन बच्चों का जितना भी नुकसान हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति शायद ही कभी हो पायेगी।

अब बारी थी बच्चों के साथ काम कैसे किया जाय? महामारी है सबको पता है लेकिन इन बच्चों की ओर भी एक लोकतान्त्रिक देश होने के नाते हमारा कुछ कर्तव्य है। इसके लिए ग्राम प्रधान और समुदाय में शिक्षकों द्वारा बात की गई और फिर शिक्षक के साथ ही कुछ बाल साहित्य छांटा गया। इस बाल साहित्य को लेकर बच्चों के बीच गये। सबसे पहले बच्चों के साथ सामान्य बातचीत की। इसके बाद कुछ रचनात्मक लेखन पर बात की।

रचनात्मक लेखन की तैयारी कैसे करें?

हम उनके लिए नोटबुक ले गए थे जिनके कवर पर कुछ चित्र बना था। हमने उस चित्र के ऊपर उनसे कुछ लिखने को कहा। कई बच्चों ने बड़ा रोचक लिखा जैसे एक बच्चे ने लिखा टावर इतना लम्बा कि उसकी चोटी बादलों को छू रही है। अब बच्चों को पुस्तकें दी। उनसे कहा कि यह आपको पढ़नी है और जब आप इनको पढ़ लोगे हम इन पर बात करेंगे। छोटे बच्चों के साथ किताब के चित्रों पर बात की। उनको चित्र दिखाये और सवाल जवाब किये।

कुछ बातचीत बच्चों के साथ इनकी पाठ्य पुस्तकों पर की। यह बातचीत ई वी एस की विषय वस्तु पर की। यह बातचीत बच्चों में वर्गीकरण और अवलोकनों के आधार पर कुछ नियम बनाने को लेकर थी। इसके लिए सबसे पहले बच्चों से कहा कि वे अपने आस-पास के पशु-पक्षियों के नाम लिखें। अब इन पशु-पक्षियों को इस आधार पर वर्गीकरण करने को कहा कि किन-किन पशु-पक्षियों के कर्ण पल्लव(Ear lobes) दिखाये देते हैं और किसके नहीं दिखाये देते हैं। बच्चों को बताया कि कान के इस बाहरी हिस्से को ‘ear lobe’ कहते हैं। जब बच्चों ने यह वर्गीकरण कर लिया तब उनसे कहा कि अब आप इनमें उन पशु-पक्षियों को छांटो जो बच्चे देते हैं और जो अंडे देते हैं।

इस आधार पर बच्चों ने अपना एक नियम बनाया कि जिन जानवरों के कर्ण पल्लव दिखाई देते हैं वो बच्चे देते हैं और जिनके नहीं दिखते या नहीं होते वो अंडे देते हैं। यह गतिविधि उनकी किताब में भी है लेकिन जब उनके साथ इसे किया तो उनको बहुत अच्छा लगा। यह भी हुआ कि विज्ञान में कोई नियम यूँ ही नहीं बनता उसको पहले अवलोकन करते हैं और फिर समझकर नियम बनाते हैं।

समुदाय के बीच जाकर बच्चों से मिलने में न केवल बच्चों को पढ़ाया जा सकता है बल्कि समुदाय की चिंताओं के बारे में भी बेहतर समझ बनती है। इसमें बहुत बड़ी संख्या में बच्चों के साथ बात नहीं हो सकती लेकिन कुछ बच्चों के साथ तो संवाद हो ही सकता है। ऐसे मुश्किल दौर में इतना करना भी उन बच्चों के लिए बड़ी रहत होगी।

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