बचपन की एक रोमांचक याद – हिमानी लोहनी
बचपन के दिनों को याद करने में कुछ अलग ही मजा है। कितनी मासूमियत होती थी दिल में। लगभग तीन- साढ़े तीन वर्ष की आयु तक मैं अपने दादा-दादी के बारह लोगों के परिवार में रहती थी। मेरी ताई की दो लड़किया और मैं पक्की सहेलियाँ थीं। मेरे लिए तो दोस्त के नाम पर सिर्फ़ वह दोनों ही थी। परंतु उनके बहुत सारे अन्य दोस्त भी थे। मेरा बहुत शर्मीला स्वभाव था जिस कारण मुझे दोस्त बनाने में बहुत समय लगता था। और फिर मेरी तो घर में ही दो सहेलियाँ थी, तो बाहर दोस्तों को ढूँढने कि जरूरत भी कभी न लगी ।
उस समय तक हमारे परिवार में बस हम तीन लड़कियाँ ही थी। पूरा समय हम साथ रहते और दिन भर खेलते रहते। दोनों में से छोटी वाली, जिसे सब प्यार से और उसके भोले स्वभाव के कारण ‘भोलू’ कहते, वह मेरी हमउम्र भी थी और मेरी सबसे अच्छी दोस्त भी। भोलू और मैं दादी के बड़े से बगीचे में खेलना बहुत पसंद करते थे। हमारा पसंददीदा खेल था ‘पान की दुकान’।
बगीचे के एक कोने में, लीची के पेड़ के नीचे एक छोटा सा पानी का गड्ढा/जमावड़ा था जिसमे माली ने वाटर लिली उगाए हुए थे। वाटर लिली के पत्ते बड़े और गोल होते हैं। हम उसे पान का पत्ता कहते थे और अपने खेलने के लिए तोड़ लिया करते थे। फिर हमारे झूट-मूट के पान में चूने की जगह मिट्टी लगाते थे , सौंफ की जगह कुछ रंग बिरंगे फूल और मुलेठी की जगह कुछ पत्थर । फिर पत्ते को अच्छे से मोड़ कर उसे घास से बांध कर अपने ग्राहक को देते थे जो हममें से ही कोई एक होता। हमारी इस दुकान में आये ग्राहक को लैंटाना के फूलों से बनी माला भी पहनाई जाती थी। हमे अपनी दुकान बहुत चुपके से लगानी पड़ती थी क्यूंकि अगर दादी को पता चलता की हम उनके बगीचे को नष्ट कर रहे हैं तो झाड़ू लेकर पीटने आती हमें । इसीलिए हम दिन दोपहरी में यह खेल खेलते जब दादी का सोने का समय होता था।
‘फूलों का डर’
बाकी समय हम गाड़ी-गाड़ी खेलते, छुपन छुपाई, आम के पेड़ में चढने की रेस करते, तो कभी मिट्टी के महल बनाते, जिसे फिर ‘पुच्ची’ (बड़ी वाली बहन) आ कर तोड़ देती और फिर हम उसकी शिकायत लगाते दादा जी से। पर दादा जी हमेशा पुच्ची का ही पक्ष लेते क्यूंकि वह घर की पहली और सबसे बड़ी बेटी जो थी। पुच्ची हमारे साथ खेलती कम, हमें डराती ज्यादा थी। डॉग फ्लाअर नाम का एक फूल होता था जो मुझे कुछ अच्छा सा लगता था क्यूंकि उसमे आखों जैसा डिजाइन होता और फूल की पंखुड़ियों को हिलाने पर ऐसा लगता था जैसा उसका मुँह चल रहा हो। तो पुच्ची ने हमे वह फूल यह कहकर छूने से मना किया था की यह फूल कुत्ते की तरह भौंकता है और अगर फूल को मैं पसंद नहीं आई तो वह मुझे काट भी सकता है। क्यूंकि पुच्ची हमसे बड़ी थी, और स्कूल भी जाती थी तो मैंने उसे ज्ञानी समझ उसकी बात मान ली और उस फूल को पुनः कभी न छुआ ।
भोलू और मैं उसे आपस में तानाशाह बुलाते थे । पर वो जितना हमे झेलाती थी उतना ही प्यार भी करती थी। कभी मुझे अपने डॉल से खेलने को देती तो कभी मुझे अपने कपड़े पहनने को देती। और हमे घरवालों की डाँट से भी बचाती । मेरी माँ का मायका लोकल न होने के कारण मैं अपनी माँ के घरवालों को कभी ज्यादा जान नहीं पाई परंतु मेरी ताई का मायका तो बगल में ही था तो वह हर दो महीने में अपनी माँ या बहन के घर रहने चली जाती और साथ ही ले जाती मेरी दो सहेलियों को और फिर 15 -20 दिन रह कर ही वापिस आती। इस बीच मैं घर पर बिल्कुल अकेली हो जाती । यूं तो पूरा परिवार होता पर सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो जाते । माँ- दादी या तो किचन के काम या फिर माँ अपनी पढ़ाई में लग जाती । परदादी को ठीक से सुनाई नहीं देता था और उनका ठेठ पहाड़ी में बोलना हमे समझ नहीं आता था, तो उनसे दूरी ही बनी रहती थी। पापा, चाचा और ताऊ की नौकरी इस प्रकार थी की वह एक महीना घर रहते और एक महीना घर से दूर नौकरी पर। फिर बचे दादा जी जो उस वक्त ओएनजीसी में डायरेक्टर के पोस्ट में थे, और बड़े शान से अपने सफेद बजाज के स्कूटर पर ऑफिस जाया करते थे। बहुत पसंद था उन्हे वह स्कूटर, अपनी कमाई की पहली और शायद आखरी गाड़ी जो थी वह। खैर, दादा जी भी ज्यादा घर पर न रहते थे। तब तक चाची भी नहीं आई थी। तो पूरा परिवार होने के बाद भी मैं बहुत अकेली पढ़ जाती थी।
‘बचपन की एक हँसाने वाली याद’
बचपन की अब कुछ धुँधुली यादें ही रह गयी है। एक दिन को याद कर आज भी हंसी आती है। मेरी ताई जी हर बार की तरह अपनी बहन के घर, मेरी बहनों को ले कर रहने चली गयी थी और मैं अपनी बहनों को बहुत याद कर रही थी। उस दिन मम्मी -पापा कहीं बाहर शायद बाजार गए हुए थे और मैं अपने रूम में अकेली सो रही थी । तभी आधी नींद में मैंने दादी-दादा को बात करते सुना कि वह ताई के मायके जा रहे हैं। न जाने क्या मेरे मन में आया होगा और मैं नींद से उठ, झट से तैयार हुई और दादी से जिद करने लगी की मुझे भी ले चलो। उस समय मोबाईल फोन तो हुआ न करते थे, तो माँ -पापा से पूछने का कोई रास्ता नहीं था। थोडी देर माँ पापा के वापिस आने का इंतज़ार भी किया हमने, लेकिन फिर दादा जी ने बोला कि हम उनके आने से पहले ही वापिस आ जायेगे तो क्या पूछना । आखिर वो मेरा पापा के भी पापा है। उन्हे कौन मना करता। तो फिर क्या था, दादी, मैं और दादा जी उनके सफेद बजाज के स्कूटर में बैठ चल दिए मेरी बहनों से मिलने।
अपनी बहनों को देख तो मैं खुशी से उझल पड़ी। खूब खेला मैंने उनके साथ और मौसी के बच्चों के साथ। पर जब उन्हें छोड़ वापिस घर जाने का समय आया तो मेरी बहन मुझसे बोली कि तू हमारे साथ ही रुक जा। कल चली जाइयों घर। बस उनका कहना और मेरा मान लेना । पर दादा -दादी थोड़ी न मान लेने वाले थे यह बात। मम्मी – पापा से पूछे बिना मुझे अपने साथ ले तो आये थे पर किसी के बच्चे को किसी और के घर में ऐसे ही थोडी न छोड देते, फिर चाहे वो मेरे पापा के पापा ही क्यों न हो।
तो फिर हम सहेलियों की टोली को इस समस्या का एक हल सूझा । इस बात पे सहमति बनी कि मैं अलमारी में छुप जाऊँगी, और जब मैं किसी बड़े के नज़रों के सामने ही नहीं आऊंगी तो वह मुझे कैसे ले जाएंगे अपने साथ, या क्या पता वो भूल ही जाए कि मैं उनके साथ थी भी कभी। तो मैंने ऐसा ही किया। मैं छुप गयी। बहुत देर तक सभी बड़े मुझे ढूँढते रहे। पूरा घर छान मारा , दूर तक सड़क में भी देख आये, पड़ोसियों के घरों के दरवाजे भी खटकटा दिए, खूब शोर -चिल्लाना भी हो गया। लेकिन मैं तो उनके भूलने और जाने का इतेज़ार कर रही थी, वह हो ही नहीं रहा था। पता नहीं कैसी तेज याददाश्त थी सबकी। बड़ों को इतना तो समझ आ गया था शायद कि यह बच्चों की ही शरारत है, तो मेरी बहनों से पूछताछ होने लगी। तो कुछ देर के बाद उन्होंने बता ही दिया कि हिमानी हमारे साथ ही रहना चाहती है । जब तक आप लोग हाँ नहीं बोलोगे, उसका पता किसी को नहीं बताया जाएगा।
यह बात सुन कर सभी बड़ों की हंसी छूट गई । बस इतनी सी बात थी और हम बच्चों ने तो सब की दिल की धड़कने ही रोक दी थी। आखिरकार मुझे वहाँ रहने की इजाजत मिल गयी , और मैं 1 दिन नहीं, पूरे बीस दिनों तक, सबको भूल कर अपनी ताई के मायके रह फिर वापिस मुँह उठा कर घर वापिस आ गयी।
घर आ कर मम्मी ने फिर मेरे साथ क्या करा होगा, यह कल्पना आपके लिए ही छोड़ देती हूँ।
(हिमानी लोहनी वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, पिथौरागढ़ में कार्यरत हैं। आपने एरोस्पेस इंजीनियरिंग में बीटेक तथा मास्टर्स ह्यूमन फ़ैक्टर्स में ‘एम्बरी रिडल ऐरोनाटिकाल यूनिवर्सिटी’, अमेरिका से किया है।
अमेरिका से अपने देश लौटने पर इनमे सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने की रुचि जागृत हुई और कुछ समय तक आपने पेस्टलोजी नामक संस्थान में अंग्रेजी विषय के अध्यापक के तौर पर भी कार्य किया है।
हिमानी बच्चों के लिए शिक्षा को रुचिकर और गुणवत्तापूर्ण बनाना चाहती है। आपको बचपन की यादों की सैर कराने वाला यह लेख कैसा लगा? टिप्पणी करके जरूर बताएं।)
हालांकि सबका बचपन कमोबेश एक जैसा ही होता है, उसका कलमबद्ध करना एक उपलबधि है। हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई।
संतोख सिंह।