डियर टारगेट अचीवर्स!!
शिक्षा के क्षेत्र में टारगेट अचीव करने की एक नई कॉरपोरेट कल्चर का विकास हो रहा है। एजुकेशन मिरर की तरफ से यह चिट्ठी टारगेट अचीव करने वाले साथियों को संबोधित है। तो आइए पढ़ते हैं एक नयी चिट्ठी।
डियर टारगेट अचीवर्स,
भारत में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में लक्ष्य निर्धारित करने और उसे निश्चित समयावधि में हासिल करने की एक नयी कॉरपोरेट कल्चर की शुरुआत हुई है। इसमें टीचर एज्युकेटर का सारा ध्यान लक्ष्य हासिल करने या टारगेट अचीव करने पर होता है।
इस तरह से किसी लक्ष्य को हासिल करने की प्रक्रिया में बहुत सारी जरूरी चीज़ें जो शिक्षा के क्षेत्र में हमारे काम करने का मुख्य मक़सद होती हैं वे गौड़ हो जाती हैं। इससे छोटी अवधि में फ़ायदा होता नज़र आता है, और लंबी समयावधि में नुकसान भी हो सकता है।
जैसे अगर किसी संस्था ने कार्यशाला के लिए शिक्षकों का टारगेट सेट कर दिया कि फलां कार्यशाला में इतने शिक्षक तो आने ही चाहिए तो अंततः इसका सारा दबाव स्कूल में टीचर एजुकेटर की भूमिका निभा रहे व्यक्ति पर पड़ता है। इससे वह अपने काम की बजाय संख्या बढ़ाने और लक्ष्य हासिल करने के लिए जरूरी आँकड़े जुटाने पर उसका ध्यान केंद्रित हो जाता है। ऐसे में नज़रिये में होने वाला बदलाव। ख़ुद की पहल से शिक्षक के आगे आने वाली बात कहीं न कहीं पीछे छूटती हैं। शिक्षकों को भी हमरे व्यवहार से यह संदेश जाता है कि अरे! इनका सारा ज़ोर तो मीटिंग और ट्रेनिंग के ऊपर ही है।
नामांकन का टारगेट
सरकारी शिक्षा तंत्र में भी शिक्षकों को नामांकन का टॉरगेट दिया जाता है। जैसे मान लीजिए किसी स्कूल में पाँच शिक्षक हैं और सबको 20 बच्चों के नामांकन का लक्ष्य दे दिया गया। तो ऐसे में क्या होगा? अगर 20 बच्चे उस गाँव या स्कूल वाले क्षेत्र में नहीं हैं तो शिक्षक फर्ज़ी नामांकन करेगा या फिर कम उम्र के बच्चों (अंडर एज़ चिल्ड्रन) का नामांकन अपने स्कूल में करेंगे। अंडर एज बच्चे किसी भी सरकारी या निजी स्कूल की पहली कक्षा में पढ़ने वाले वे बच्चे हैं जिनकी वास्तविक उम्र छह साल से कम है।
इस तरह से बच्चों का प्रवेश करके इस साल का टारगेट तो अचीव हो गया। मगर अगले साल इसी लक्ष्य के दोबारा सामने आने पर शिक्षक क्या करेंगे? इस सवाल के ऊपर उनका ध्यान नहीं है। अगले साल वे क्या जवाब देंगे, इस बात की भी उनको ज्यादा परवाह नहीं है। क्योंकि अभी तो उनका नज़र स्कूल और ख़ुद के सामने आने वाली तात्कालिक समस्याओं के समाधान की है। फर्ज़ी नामांकन वाले बच्चे 45 दिनों के बाद ड्रॉप आउट हो जाएंगे। कम उम्र के बच्चे प्रमोशन पाकर (क्रमोन्नत होकर) दूसरी कक्षा में पहुंच जाएंगे।
टारगेट अचीव हो गया?
नामांकन के लिए चलने वाले अभियान का सबसे प्रमुख फ़ायदा है कि इससे छह साल के बच्चों का नामांकन स्कूल में हो जाता है। ऐसे बच्चों को वास्तव में स्कूल से जोड़ने की जरूरत होती है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि नामांकन का लक्ष्य पाने वाली हड़बडी के दो प्रमुख उत्पाद भी सामने आ रहे हैं एक तो ड्राप आउट की ऐसी सूची तैयार होगी जो बड़े पैमाने पर ऐसे बच्चों की संख्या को दर्शाएगी जो स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। सबसे ग़ौर करने वाली बात है कि शिक्षक ऐसे बच्चों का ठहराव कभी सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे, जो वास्तव में कहीं नहीं हैं। ऐसे में इन बच्चों के पलायन की कहानी लिखी जाएगी। किसी अन्य स्कूल में एडमीशन की दास्तां लिखी जाएगी। ऐसी तमाम बातों की एक लिस्ट बन जाएगी जो वास्तव में किसी स्कूल के लिए कोई मुद्दा नहीं है।
दूसरी तरफ़ ऐसे बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करेगी जो अभी पढ़ना-लिखना सीखने की सही उम्र तक पहुंचने से दो-एक साल दूर हैं। शिक्षकों के सामने समस्या है कि वे वास्तविक स्थिति के बारे में अपने अधिकारियों को रिपोर्ट नहीं करते। अगर वे ऐसा करते हैं तो स्पष्टीकरण देने की जिम्मेदारी भी उनके ऊपर ही आएगी। क्योंकि अधिकारियों के पास पहले से ही काम बहुत ज्यादा है और ऊपर से आने वाले आदेशों को लागू करवाने का बड़ा टारगेट भी उनके पास है, जिसे हासिल करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।
कैसे बढ़ेगा स्टूडेंट लर्निंग आउटकम ?
अब बात करते हैं बच्चों के अधिगम परिणाम (स्टूडेंट लर्निंग आउटकम) की स्थिति के बारे में। किसी स्कूल में बच्चों का सीखना बहुत से कारकों के ऊपर निर्भर करता है। इसे शिक्षक द्वारा योजना बनाने, उसका क्रियान्वयन करने, कक्षा के प्रत्येक बच्चे के ऊपर ध्यान देने, स्कूल के कार्य दिवसों के प्रभावशाली इस्तेमाल जैसी बातें मायने रखती हैं। अगर एक शिक्षक बच्चों के समय का इस्तेमाल डाक बनाने में या कागजी काम करने में करता है तो इसका सीधा सा असर बच्चों के सीखने पर पड़ता है। इसलिए सारी जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति शिक्षक, अभिभावक, बच्चों या शिक्षक प्रशिक्षक के ऊपर डालने की बजाय पूरी परिस्थिति का विश्लेषण करना चाहिए। इससे यह जानने में मदद मिलेगी की चूक कहां हो रही है।

अर्ली लिट्रेसी में भाषा शिक्षण को काफ़ी महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि बाकी विषयों के सीखने की बुनियाद पढ़ने-लिखने की क्षमता पर निर्भर करती है।
इस काम को आसान बनाने में टीचर एजुकेटर की भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वे किसी स्कूल को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखते हुए शिक्षक और बच्चों के बीच होने वाले क्लासरूम प्रासेस को आधार बनाकर, रणनीति के मजबूत और कमज़ोर पक्षों के बारे में विचार करके, बच्चों की चुनौतियों को शिक्षक के सामने रखते हुए एक ऐसी योजना बना सकते हैं जो उस स्कूल में प्रभावशील ढंग से लागू की जा सके। क्योंकि हर स्कूल की परिस्थिति में कुछ समानताएं होती हैं तो कुछ अंतर भी होता है। ऐसे में दूसरे स्कूल के कुछ अन्य अनुभवों का इस्तेमाल हो सकता है और स्कूल विशेष के संदर्भ में कुछ नयी योजना भी बनायी जा सकती है।
टीचर एजुकेटर का रोल है अहम
लर्निंग आउटकम सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी शिक्षक प्रशिक्षक (टीचर एजुकेटर) की भी होती है। जो स्कूलों में टीचर्स को ऑन साइट सपोर्ट करते हैं। बच्चों के साथ सीधे संपर्क में होते हैं। शिक्षक को क्लासरूम में काम करते हुए सीधे देखते हैं। उनके सामने सबसे पहली चुनौती होती है कि शिक्षक नियमित रूप से क्लास में जाए। बच्चों को निर्धारित समय तक रणनीति के मुताबिक़ पढ़ाए। उसमें जहाँ दिक्कत आ रही है, उसके ऊपर बातचीत करे और समाधान की दिशा में काम करे।
“अगर एक टीचर एजुकेटर को वास्तविक परिस्थिति के ऊपर बातचीत करने और समाधान करने का मौका नहीं मिले तो क्या होगा? इस सवाल का एक जवाब होगा कि लंबी अवधि में इसका नुकसान टीचर एजुकेटर, टीचर और बच्चों के वास्तविक लर्निंग लेवल में गिरावट के रूप में सामने आता है।”
अगर हम दूर-दराज के स्कूलों की बात करें जहाँ कोई अधिकारी जाता ही नहीं। जहाँ के शिक्षक स्कूल में अपने हिसाब से काम करते हैं। आते-जाते हैं। ऐसे में तो उनको टीचर एजुकेटर की मौजूदगी से ऐसा लगेगा कि अरे, यह तो हमारे काम में अडंगा लगाने वाला कोई व्यक्ति आ गया। वहां शिक्षक का आपको देखने का नज़रिया बहुत अलग होगा। उस नज़रिये के बदलाव में वक़्त लगता है।
एक शिक्षक को नई रणनीति के हिसाब से ख़ुद को तैयार करने में समय लगता है। वे बार-बार अपने पुराने अनुभवों और पुराने तरीकों की तरफ़ लौटना चाहते हैं क्योंकि यह उनका कंफर्ट ज़ोन है। यहां वे सहज महसूस करते हैं। और कोई भी व्यक्ति परेशान नहीं होना चाहता, ज्यादातर लोग यही चाहते हैं कि अपने कंफर्ट ज़ोन में बने रहें। हमारी कोशिश तो यही होती है कि एक शिक्षक इस कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकले और पहले की चुनौतियों का नये नज़रिये और नये तरीके से स्थायी समाधान खोजे। ताकि उस स्कूल से हमारे जाने के बाद भी वहां काम होता रहे।
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