बच्चों को ‘कचरा’ मानने वाली सोच कहाँ से आती है?
किसी सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के बारे में अक्सर कई शिक्षक कहते हैं, “अच्छे बच्चे तो निजी स्कूल में चले जाते हैं। सरकारी स्कूल में तो ‘कचरा’ ही बचता है।”
तो वहीं कुछ शिक्षक बताते हैं, “पहली-दूसरी क्लास के बच्चों को कई लोग कचरा मानते हैं। उनको कोई पढ़ाना नहीं चाहता। हर कोई बड़ी कक्षाओं में पढ़ाना चाहता है।” सबसे अहम सवाल है कि बच्चों को ‘कचरा’ मानने वाली यह मानसिकता कहां से आती है?
इस बात मैंने अपनी तरफ से समझने की कोशिश करने पर पाया कि ऐसे बच्चे जो प्रकृति के बहुत ज्यादा करीब हैं। बहुत ज्यादा सहज हैं। संवेदनशील हैं। अपने आसपास की चीज़ों को लेकर जिज्ञासु हैं। किसी के प्रति अपने मन में कोई बैर भाव नहीं रखते। उनमुक्त भाव से अच्छी बातों पर हँसना जानते हैं। हर किसी से सीखने को तत्पर और स्वभाव से जिज्ञासु होते हैं, उनको कोई शिक्षक कचरा कैसे कह सकता है?
ताक़त बनी कमजोरी
सरकारी स्कूलों के दुर्दशा की जो दास्तां हर तरफ सुनाई देती है, उसका मूल कारण है कि हमने अपनी ताक़त को धीरे-धीरे वक्त के साथ कमज़ोरी में तब्दील कर दिया है। स्कूलों में अगर सबसे ज्यादा उपेक्षित होने वाली कोई क्लास हैं, जो संभवतः वह पहली-दूसरी कक्षा ही है। इसके बाद उन कक्षाओं का नंबर आता है जो सबसे ज्यादा शरारत करती हैं। शोर मचाती हैं। वे भी शिक्षकों द्वारा जानबूझकर उपेक्षित कर दी जाती हैं। ऐसी उपेक्षा का बच्चों के मनोभाव पर क्या असर पड़ता है? यह सवाल सामने होता है, जब उस क्लास के बारे में सोचता हूँ।
अगर बुनियाद अच्छी हो तो आगे काम करने में आसानी होती है। इस बात को तथ्य के रूप में सभी शिक्षक मानते हैं। मगर जब इस बात को तथ्य मानते हुए, इस पर अमल की बात होती है तो बहुत से शिक्षक पीछे हट जाते हैं। रीडिंग कैंपेन के दौरान अच्छे काम का असर हो रहा था। लेकिन उस अभियान की समाप्ती के बाद हिंदी वाले शिक्षक, कहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं। तो कहीं वे शिक्षक कह रहे हैं कि अब पहले जैसी मेहनत नहीं हो पाती। छोटे बच्चों के साथ रेगुलर काम करने की जरूरत होती है, जो हमसे नहीं हो पाएगा।
नियमित पढ़ाने की जरूरत
ऐसी बातें सामने आती हैं तो लगता है कि आठवीं क्लास तक के बच्चों को तो रेगुलर पढ़ाने की जरूरत होती है ताकि उनके भीतर बहुत सी ऐसी आदतों का विकास किया जा सके, जो आजीवन उनके काम आ सकें। मसलन खुद से बैठकर पढ़ने के कौशल और पढ़ने की आदत का विकास, चीज़ों को समझकर पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना, सुलेख लिखना, अच्छी वर्तनी के साथ अपने विचारों को लिखित व मौखिक रूप में व्यक्त कर पाने की क्षमता का विकास इत्यादि।
इसके लिए तो पहली क्लास से आठवीं क्लास तक लगातार काम करने की जरूरत है। ऐसा करने के लिए केवल बड़ी कक्षाओं में पढ़ाना पर्याप्त नहीं होगा। बड़ी कक्षाओं में होने वाली पढ़ाई का सही लाभ स्कूलों को तभी मिल पाएगा, जब बच्चों की बुनियाद अच्छी हो। उन्हें भाषा का कुशलता के साथ इस्तेमाल करना आता हो। विभिन्न विषयों की अवधारणाओं का समझ के साथ इस्तेमाल करने की अपेक्षा भी आठवीं क्लास के बच्चे से होती है। मगर ऐसा तभी संभव हो पायेगा, जब बच्चों की बुनियाद अच्छी हो।
इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें