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शिक्षा मनोविज्ञानः क्यों जरूरी है यथार्थवादी चिंतन?

education_mirror-imageयथार्थवादी चिंतन वैसे चिंतन को कहा जाता है जिसका संबंध वास्तविकता से होता है और उसके सहारे व्यक्ति किसी समस्या का समाधान कर पाता है। शिक्षा मनोविज्ञान में इसके तीन प्रकार हैं अभिसारी, सर्जनात्मक और आलोचनात्मक चिंतन।

सबसे पहले यथार्थवादी चिंतन का एक उदाहरण देखते हैं। मान लीजिए किसी स्कूल में शिक्षक बच्चों को रोज़ाना नहीं पढ़ा रहे हैं। अगर यह बात उस शिक्षक प्रशिक्षक (टीचर एजुकेटर) को पता नहीं है जो उस स्कूल को सपोर्ट कर रहे हैं तो फिर शिक्षक के कौशल और ज्ञान पर काम करने का कोई फ़ायदा बच्चों के अधिगम पर नहीं होगा।

क्योंकि बच्चों के साथ तो रोज़ाना काम हो ही नहीं रहा है। अगर इस वास्तविक मसले पर शिक्षक के साथ संवाद होता है तो संभव है कि कोई समाधान निकल पाए, वर्ना वास्तविक परिस्थिति के संज्ञान के अभाव में समस्या ज्यों की त्यों कायम रहेगी।

अभिसारी चिंतन

इस तरह के चिंतन को निगमनात्मक चिंतन भी कहते हैं। अभिसारी चिंतन में दिए गए तथ्यों के आधार पर व्यक्ति किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करता है।

पठन कौशल, पढ़ने की आदत, रीडिंग स्किल, रीडिंग हैबिट, रीडिंग रिसर्च,

एक सरकारी स्कूल में एनसीईआरटी की रीडिंग सेल द्वारा छापी गयी किताबें पढ़ते बच्चे।

जैसे राजस्थान के बहुत से विद्यालय एकल शिक्षकों के भरोसे हैं। मध्य प्रदेश में एकल विद्यालयों (सिंगल टीचर स्कूल) की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में भी बहुत से स्कूल एकल शिक्षकों के भरोसे संचालित हो रहे हैं।

इसके आधार पर एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में एकल शिक्षकों की मौजूदगी प्राथमिक स्तर पर एक गंभीर चुनौती है।

इस तरह के चिंतन में व्यक्ति अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त अनुभवों को एक साथ मिलाकर उनके आधार पर एक समाधान खोजता है।

सर्जनात्मक चिंतन

शिक्षा मनोविज्ञान में इस तरह के चिंतन को आगमनात्मक चिंतन कहते हैं। इस तरह के चिंतन में व्यक्ति दिए गए तथ्यों में अपनी अपनी ओर से कुछ नया जोड़कर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचता है। जबतक व्यक्ति इन नए तथ्यों को अपनी ओर से नहीं जोड़ता, अर्थात तथ्यों का सृजन नहीं करता तबतक समस्या का समाधान नहीं हो पाता है।

स्कूल जाते बच्चे, स्कूली शिक्षाउदाहरण के लिए एक समुदाय में बच्चों के नियमित स्कूल न आने की समस्या थी। एक संस्था ने लोगों को कैलेंडर दिया ताकि वे रोज़ाना टिक कर सकें, जिस दिन बच्चा स्कूल आता है।

इस तरह से कैलेंडर के जरिए बच्चों के नियमित स्कूल आने और उनके सीखने के बीच का संबंध बताकर लोगों को बच्चों को नियमित स्कूल भेजने के लिए कहा गया, इसका काफी सकारात्मक असर हुआ। यानि एक समस्या का समाधान करने के लिए बच्चों के नियमित आने वाले तथ्य में उनके अधिगम वाले पहलू को शामिल करके समुदाय के सामने पूरी बात को ज्यादा प्रभावशाली ढंग से रखा गया, जिसका असर हुआ।

भविष्य में शिक्षा में तकनीकी का क्या असर होगा? भविष्य की शिक्षा नीति कैसी होगी? भविष्य में परिवार की संरचना कैसी होगी? अगर दुनिया में रंग नहीं होते तो क्या होता? जैसे सवालों के जवाब सृजनात्मक चिंतन का उदाहरण हो सकते हैं। ऐसा जरूरी नहीं है कि हर बार सृजनात्मक चिंतन किसी समस्या का समाधान करने के लिए ही हों। वे खालिस मनोरंजन के लिए भी हो सकते हैं। गजल, शायरी और गीत इसके उदाहरण हैं। दार्शनिक विचारों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है, जिसमें समाज की वास्तविकताओं को सिद्धांतों के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश होती है।

आलोचनात्मक चिंतन

इस तरह के चिंतन में व्यक्ति किसी वस्तु, घटना या तथ्य की सच्चाई को स्वीकार करने से पहले उसके गुण-दोष की परख करता है।

हमारे समाज में आमतौर पर लोग टेलीविज़न, अख़बार और लोगों की कही-सुनी बातों को सच मान लेते हैं। उसके बारे में खुद सोचते नहीं हैं। ऐसी स्थिति में कहा जाता है कि ऐसे लोगों में आलोचनात्मक चिंतन का अभाव है।

वर्तमान में आलोचनात्मक चिंतन को समस्या समाधान की दृष्टि से उपयोगी माना जाता है। ऐसे लोगों के विश्लेषण को लोग पढ़ना-सुनना पसंद करते हैं क्योंकि ऐसे लोग किसी समस्या या परिस्थिति के विभिन्न पहलुओं की ऐसी व्याख्या करते हैं जिससे उसे समझना आसान हो जाता है।

अगली पोस्ट में चर्चा चिंतन की प्रक्रिया किन माध्यमों से होती है, इस विषय पर केंद्रित होगी।

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