स्कूल में 400 बच्चों को कैसे संभालें?
यह कहानी मेरी पहली पोस्टिंग के अनुभव से जुड़ी है। इस अनुभव का हिस्सा रहे विभिन्न पक्षों की तारीफ और आलोचना के बगैर मैं अपना अनुभव ज्यों का त्यों आपसे साझा कर रहा हूँ। इसके बारे में आप अपनी राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।
मेरी पहली पोस्टिंग का विद्यालय मेरे घर से तकरीबन 25-30 किलोमीटर दूर था। यह विद्यालय जिस गाँव में स्थित है, वह जिला मुख्यालय से अत्यधिक दूर होने के कारण एक अलग ही तरह की परम्परा का निर्वहन करता है। यहाँ पर शिक्षक अब भी पूजनीय हैं।
मेरे विद्यालय के प्रांगण में किसी बाबा का चबूतरा है जहाँ विद्यालय के शिक्षक, बच्चे से लेकर गाँव का ग्रामीण भी आकर माथा टेकते हैं। शादी के बाद दूल्हा-दुल्हन एक साथ बाबा के आशीर्वाद हेतु लाए जाते हैं। कुल मिलाकर सात्विक, धार्मिक गाँव है, दिखावा, बैर, असहायता से दूर। ग्रामीणों की धार्मिक प्रवृति ने बच्चों के मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा के साथ ईश्वरीय भय को भी स्थान दिया था।
पहली पोस्टिंग का अनुभव
यह विद्यालय आठवीं तक था। इस स्कूल में 400 बच्चे थे। तीन शिक्षकों व एक शिक्षिका समेत कुल चार शिक्षक थे। मैं स्कूल में अभी नया-नया आया था। अतः शुरूआती दिनों में विद्यालय के कार्यों व परम्पराओं को ठीक से समझने में लगा था। दूर होने की वजह से मुझसे अक्सर देर हो जाती और आध घंटे लेट ही विद्यालय पहुँच पाता था। 400 बच्चों की आठ कक्षाओं को चार शिक्षकों द्वारा संभालने में बड़ी मुश्किल होती थी। हम रोज नए-नए प्लान बनाते और वे इस प्रकार बिखर जाते जैसे पर्वत से टकराकर हवाएं बिखर जाती हैं। इस समस्या के समाधान का एक दिन अनोखा हल देखने को मिला।
एक दिन मैं गाड़ी नहीं मिलने के कारण विद्यालय अनपेक्षित देरी से पहुंचा तो यह देखकर बहुत सुखद आश्चर्य से भर गया कि सारे बच्चे विद्यालय प्रांगण में कोलाहल करने की जगह कक्षाओं में बैठे हैं। आमतौर पर लगभग 50-60 बच्चे कक्षाओं के बाहर दिख ही जाते थे। पर आज मामला बिल्कुल उल्टा था। इसे देखते और आश्चर्य करते हुए मैं कार्यालय में गया। वहां एक शिक्षक बैठे कुछ रिपोर्ट बना रहे थे उन्हीं से पता चला कि प्रधानाध्यापक महोदय मासिक गुरु-गोष्ठी में प्रखंड कार्यालय गए हैं। अर्थात, कक्षाओं के लिए सिर्फ मैं और एक शिक्षिका ही उपलब्ध थे।
10 पन्नों पर ‘एक ही बात’
खैर, कार्यालय से निकलकर मैं कक्षाओं की ओर गया वहां सभी बच्चे तल्लीनता से कुछ लिख रहे थे। परन्तु कापियों में नहीं अलग-अलग फाड़े हुए पन्नों पर। मैंने देखने की कोशिश की परन्तु सारे प्रयास व्यर्थ, कोई भी मुझे वो लेखनी दिखाने को तैयार नहीं था। मैंने बहलाया, फुसलाया, लालच दिया, घुड़का और डराया भी पर उनके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा। अंत में मैंने एक बच्चे से एक पन्ना झटक ही लिया और यह देखकर दंग रह गया कि हर बच्चा 10-10 पन्नों पर एक ही बात लिख रहा है।
इसमें भगवान की कई आश्चर्यजनक कलाओं वाली कहानियों के बाद अंत में मजमून कुछ यूँ था-“जय माता दी, जिस किसी भी भक्त को यह परचा मिले वह ऐसे 10 पर्चे छपवाकर अपने आस-पड़ोस में बाँटें इससे बिगड़े काम बनेंगे, व्यापारी को लाभ, किसान को अच्छी फसल, गरीब को धन, संतानहीन को संतान, बीमार को आरोग्य इत्यादि इत्यादि की प्राप्ति होगी।” इस परचे को पढ़कर नहीं छापने वालों को विभिन्न प्रकार से ईश्वरीय प्रकोप का डर दिखाया गया था।”
‘मजबूरी में लिखना पड़ रहा है’
मैंने इस परचे को देखने के बाद विभिन्न कक्षाओं में जाकर बच्चों को ऐसी अफवाहों में पड़ने से मना किया। इसके बाद मैंने महसूस किया कि मेरी बात समझने की जगह सभी बच्चों की मुखाकृति और चेहरे के भाव मेरे उपर पड़ने वाले दैवीय प्रकोप की कल्पना की सिहरन से भरे हुए थे। मेरी किसी भी दलील का कोई प्रभाव ना पाकर मैंने खीजते हुए और बच्चों के भोलेपन पर मुस्कुराते हुए शिक्षिका महोदया को पुकारा। परन्तु दो बार पुकारने के बाद भी जब उन्होंने मेरी ओर नहीं देखा, तो मैं स्वयं उनके पास पहुंचा। पर हाय, वे तो खुद भी इसी काम में लगी हुई थी।
मेरे पास पहुंचकर पूछने पर (रुआंसे होकर) कहा-“अब बताइए न सर, पाँचवीं की पिंकी मुझे यह दिखाने ले आई थी। मेरे दो छोटे बच्चे हैं और पति के सिवाय मेरा इस दुनिया में कोई और है भी नहीं, मजबूरी में लिखना पड़ रहा है। ना लिखूं और किसी को कुछ हो जाये तो जीवन भर का पछतावा रह जाये।” मैं हतप्रभ-“ये भी??”
बच्चों को संभालने का ‘अनोखा आइडिया’
इसके बाद मैंने कार्यालय में काम कर रहे शिक्षक बंधु से झुंझलाहट भरे शब्दों में कहा-“बताइए सर, सारे बच्चे, या यों कहें कि सारा विद्यालय ही इस काम को करने में ऐसे लगा है जैसे आज की तारीख में दुनिया का सबसे जरूरी काम यही है। इसे ना किया गया तो दुनिया का विनाश तय है।”
शिक्षक(शांत भाव से)-“बैठिए-बैठिए।”
मैं (निराशा के स्वर में)-“क्या बैठें सर, पता है? पहली कक्षा के बच्चे भी, जो अक्षर पहचानना सीख रहे हैं, वे भी प्यास-पिशाब भूलकर पन्ने की नक़ल उतारने में लगे हैं और मैडम भी लगी पड़ी हैं।”
शिक्षक (मुस्कुराते हुए)-“ठीक ही तो है।”
मैं (आश्चर्य से)-“आप हँस रहे हैं?”
शिक्षक (अब थोड़ा गंभीर होकर)-“बुरा मत मानिये, वह परचा सवेरे की प्रार्थना सभा में मैंने ही धीरे से बच्चों के बीच गिराया है। तीन शिक्षकों के भरोसे 400 बच्चों को कैसे संभाले? उसमें भी जब मुझे छात्रवृति रिपोर्ट आज ही तैयार करने का आदेश है। स्कूल की कई कक्षाओं में तो श्याम पट्ट भी नहीं हैं। ऐसे में क्या गलत है, यह सोचने का वक़्त भी है क्या? इस बहाने बच्चे शांत रहकर एक पन्ने पर लिखे शब्द उसके हिज्जे आदि को ही सही, शुद्ध लिखना तो सीख लें।”
कम शिक्षक वाले स्कूलों में 400 बच्चों को संभालने का यह तरीका शिक्षक-प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है। यह तो ऐसी परिस्थिति से प्राप्त अनुभव का परिणाम है। अब इसमें क्या सही है और क्या गलत, मैं तो निरुत्तर हूँ और आप?
(इस पोस्ट के लेखक अभिषेक पाण्डेय बिहार के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं। बच्चों को पढ़ाने का उनके पास लंबा अनुभव है। एजुकेशन मिरर के लिए लिखी इस पोस्ट में उन्होंने अपनी पहली पोस्टिंग से जुड़े एक अनुभवों को साझा किया है।)
तरीकों का तो क्या कहें लेकिन ये प्रयास जो शिक्षक ने किया काम से कम इसके पीछे एक वजह रही होगी जो म7झे समझ में आता है, कि इन के बहाने बच्चे तो बैठेंगे ही साथ साथ उनकी लेखनी और शब्दों को पहचानने से लेकर बोलने तक का ज्ञान होगा। लेकिन इसके पीछे एक समस्या है जो क़ि शायद एक भयावह स्थिति हो सकती है क़ि बच्चों को शिक्षा का मूल नही सीखा रहे हैं बल्कि भगवान का डर दिखा कर जीवन जीने के तरीके को अंजाम दिया जा रहा है।