अनुभव की अभिव्यक्ति है लेखन – यशस्वी

इस पोस्ट की लेखिका यशस्वी कहती हैं, “अनुभवों की बेचैनी हमसे लिखवा लेती है।”
इस बार काफी दिन हुए मैंने नहीं लिखा कुछ भी। मतलब कुछ भी नहीं लिखा। हालांकि मैं लिखना पसंद करती हूँ। ठीक-ठाक लिख भी लेती हूँ। मगर ये भी कहूँगी की लिखना सीखने और इसे समझने की प्रक्रिया में गोते लगा रही हूँ।
इस प्रक्रिया में डर भी नहीं लगा था मुझे। बल्कि मज़ा आया था। लिखना एडवेंचर था मेरे लिए। ठीक वैसे ही जैसे आप पहली बार ‘स्कूबा डाइविंग’ के लिए एडमैन के बीच में हो। फैसला तो आप बाद में लेते हैं। सागर की बड़ी –बड़ी लहरें आपको उन्माद से भर जाती हैं। आप लहरों संग ऊपर –नीचे करने लगते हो। समुद्र में उतरने से ही पहले।
ऐसे में भला कहां समझ आता हैं कि जाएं या न जाएं। कानों में अलग-अलग आवाज़ें कैद होती रहती हैं और मचलने लगता है मन, कि चलो। अब तो चलना ही है ।
ऐसे लग जाते हैं विचारों को पंख
हम जब अनुभव के जहाज से उतर आते हैं तो भीतर की कुलबुलाहट, बैचैनी और ख़ुशी होती है। जिसे हम बाँटना चाहते हैं। खुद को जल्दी से जल्दी खाली करना चाहते हैं। क्या हम सबके साथ ऐसा ही होता है? इसी बात पर एक विचार दिमाग में काफी समय से चल रहा था कि सबसे बेहतर रास्ता क्या हैं, जिसके जरिये हम खुद के विचारों को पंख लगा सके।
एक बहुत ही खास तरीका सामने होता है। लिख डालो। शेयर करो। लोगो से बताओ भाई। मगर हर बार हम सब कुछ लिखते रहे या लिख पाए इसके लिए भी मोटिवेशन की जरुरत होती हैं। मेरे साथ तो ये जायज हैं। बहुत ज्यादा देर तक सोच कर ,समझ कर , एक निष्कर्ष पर पहुंच कर मैं नहीं लिख पाती। ऐसे में मेरे विचारों का झरना रुक सा जाता है। ऐसा अक्सर होता है। इसलिए ही मैंने इस बात पर थोड़ा सा समय बिताया हैं। सारी बातों को याद किया है। फिर से ,एक बार।
‘मैं तब लिखती हूँ, जब लिखना चाहती हूँ’
इसके लिए मैं उस वक़्त मैं भी उतारी जब मैंने क्लास 6 में 3 मिनट में एक कविता लिखी थी, पहली बार। बिना कुछ सोचे। बिना कोई शीर्षक तय किये हुए। बस कुछ हुआ था सामान्य सा घर में। भाई-बहन की छोटी सी लड़ाई और अकेले में मैं कुछ पंक्तिया बोल गयी थी। उसी समय महसूस हुआ की अरे !! ये तो क्या ही बोला हैं मैंने। लिख लो नहीं तो ख़त्म हो जायेगा। हमेशा के लिए। शायद मैं फिर से पढना चाहूं अपनी वो बात और लिख डाला था मैंने। उसके बाद ही मैंने महसूस करना सीखा था की मेरे लिए लिखना क्या है?
फिर धीरे –धीरे लिखना समय में बंध जाना हो गया। लिखना कभी भी मेरे लिए नियमित सा नहीं रहा। हालांकि कोशिश बहुत की थी मैंने। कई बार डायरी खरीद के ले आई थी। दोस्त भी बनाया था उसे। पर मेरे लिए लिखना कभी सोचा-समझा फैसला नहीं था। सो मन के हिसाब से चली। और मैं तब लिखती हूं, जब मैं लिखना चाहती हूं। कई बार लगता है कि ये लिखूं या वो लिखूं। मगर वो लम्बे समय तक कायम नहीं हो पता।
‘सोच-सोच कर कहानी पूरी हो जाती है’
अब जब की मैंने कुछ समय से कुछ भी नहीं लिखा। तब ये बात मन में आई कि ऐसा क्यूं होता है? बहुत से लोगो से कुछ न कुछ बात होती ही रहती हैं। दुसरे लोगों के सन्दर्भ में भी मैं ये सुन पाई। देख पाई। तो लगा की चलो बात करते हैं। तो एक पॉइंट ये दिखा की बाते हैं बहुत सी, जो दिमाग में ही हैं। ऐसा शायद इसलिए हो रहा क्योकि सारी बातें दिमाग में ही सुलझ जाती हैं। सारे जवाब मिल जाते हैं । कुछ अगर बाकी भी रहा तो सोच-सोच के कहानी पूरी हो जाती हैं।

यशस्वी कहती हैं कि लिखने का सिलसिला जारी रखने के लिए प्रोत्साहन की भी जरूरत होती है।
पहले डायरी लिखने का मन होता था फिर वो शौक बना। कुछ समय के बाद जरुरत ,मगर ये वाली जरुरत सिर्फ खुद के लिए नहीं थी इसमें शामिल थी दोस्तों से मिलने वाली तारीफ ,अपनी बातों को दूसरों तक पहुचने वाले रास्ते का पूरा हो जाना, कदम –कदम पर अब लोगों की ,परिचितों की अच्छी-खासी उम्मीदें और भी बहुत कुछ।
इन सारी बातों में कही न कही एक बात कुछ ज्यादा ही सामने आई और आ रही वो हैं। वो है खुद को सबका बना देना। सार्वजनिक। ये सही भी है और लाजमी भी। लेकिन, फिर एक कौंधता हुआ सवाल की सार्वजनिकता की सीमा क्या हैं ? मतलब ,ये मेरी चॉइस है या फिर दूसरों से प्रभावित होने का रिजल्ट? खैर , सवाल का जवाब सबका अपना-अपना होगा और होता भी है।
हम क्युं लिखते हैं?
क्या हम कुछ समय के लिए एक सवाल पे ठहर पाएंगे ? कि हम क्युं लिखते हैं? इसका जवाब भी थोडा दूरदर्शिता वाला होना चाहिए। इसमें हर छोटी-बड़ी घटनाओं ,ख़ुशी ,उदाहरणों को याद करके जवाब देना अनिवार्य हैं ? खैर जब हम ये सोच ले तो अगला पड़ाव जहां आपको और मुझे रूककर सुस्ताना है वो ये होगा की हमारे लिए लिखना जरुरी क्यू हैं?
उम्मीद है कि पहले पक्ष पर सोच लेने के बाद इसका जवाब देना मुश्किल नहीं होगा। इसके बाद अब ज्यादा सोचना रोकना होगा हमें। जी बिलकुल। कुछ दिन अभ्यास की भी तो जरुरत होगी न। ये समझने के लिए आपने जो भी खुद को जवाब दिया हैं वो किस हद तक सही है आपके लिए। क्या आपको लगता हैं कि ‘खुद’ के लिए ‘लिखने का हुनर’ ही लम्बे समय तक लिखने का हुनर पैदा करेगा?
(लेखक परिचयः यशस्वी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एमए किया है।इसके बाद उन्होंने गांधी फेलोशिप में दो वर्षों तक गुजरात के सरकारी स्कूलों में प्रधानाध्यापक नेतृत्व विकास के लिए काम किया।
यशस्वी को बच्चों से बात करना और उनके सपनों व कल्पनाओं की दुनिया को जानना बेहद पसंद है। )
😶😁
Abhi to age or likhna hai
☺😊
Thank kyu
Nice
Thanks for the appreciation
Thanks Sonia for your word of appreciation. This will encourage Yashswi to keep her journey of writing going.
जज्बे को सलाम