मैं शिक्षक हूँ: एक बच्चे के ‘थैंक्यु’ से लगा मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है!

शिक्षिका नन्दिनी राठौर का अपने विद्यालय के बच्चों से काफी जुड़ाव है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के ‘बख्शी का तालाब’ क्षेत्र में स्थित प्राथमिक विद्यालय, राजापुर से यह पोस्ट नन्दिनी राठौर ने लिखी है। वे एजुकेशन मिरर की नियमित पाठक हैं। इस पोस्ट में उन्होंने एक ऐसे अनुभव को साझा किया है, जिसने प्राथमिक शिक्षा में उनके सफर की शुरूआत से ही अहसास करा दिया कि एक शिक्षक की जिम्मेदारी कितनी बड़ी है। तो विस्तार से उन्हीं के शब्दों में पढ़िए पूरी कहानी।
बात मेरी नौकरी के शुरुआती दिनों की है, जब मथुरा के राया विकास खंड के कारब ग्राम में मेरा प्रशिक्षण हो रहा था। वह स्कूल एनपीआरसी सेन्टर हुआ करता था और बच्चे बहुत अधिक संख्या में उपस्थित रहते थे। कक्षा 4 की कक्षा अध्यापिका का चार्ज मुझे मिला, हम भी पूरे उत्साह से अपनी कक्षा को सर्वश्रेष्ठ बनाने में लग गए। बच्चों के साथ दौड़ा-भागी, खो-खो खेलना, प्रोजेक्ट बनाना, जोर-शोर से पाठ योजनाएं बना कर पढ़ाना, यह सभी कुछ मेरी दिनचर्या में शामिल था।

अपने विद्यालय में छात्रों को रचनात्मक अभिव्यक्ति के अवसर देना जरूरी है।
मेरी कक्षा के सभी बच्चे पूर्ण लगन से प्रतिभाग करते थे ,उन्ही में एक था ,थोड़ा सा चुप, पर हमेशा सक्रिय बच्चों के गुट में , एकदम तत्पर। वह बोलता बहुत नहीं था, पर सीखनें को हमेशा तैयार रहता। उसके बारे में बाकी बच्चों से बातचीत के दौरान पता चला कि इसके घर की हालत बहुत अच्छी नही है, शायद उसके पिता का देहान्त हो चुका था और माँ खेतों में मजदूरी करती थी, कभी-कभी तो शायद दो रोटी भी मुश्किल से जुटती थीं।
संकोची छात्र, जिसने जल्दी ही अपना नाम लिखना सीख लिया

अपने बनाये चित्र दिखाते हुए बच्चे।
शुरुआती दिनों में जब परिचय देने की गतिविधि चल रही थी तो उसकी भी बारी आने पर उसने भी अपना नाम लिखकर दिया, थोड़ा संशय होने पर मैंने पूछा तुम्हारा नाम क्या है,वह बोला ‘अमिताभ बच्चन चौधरी ‘। जब दोबारा पूछा तो वह फिर से बोला ‘अमिताभ बच्चन चौधरी’।
अब मैंने उसे पास बुलाकर लिखवाया, उसने फिर ‘अमिताच्चन’ ही लिखा। अब तो मेरा संशय पक्का हो गया की यह अपना नाम गलत लिखता है।
इसके बाद प्रारंभ हुआ उसको सही करवाने का अभ्यास और जल्द ही तीन से चार दिनों में उसने लिखना सीख लिया। इसी बीच हुम् भी शिक्षक दिवस के सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी में व्यस्त हो गए और चार दिनों तक अमिताभ के संपर्क में थोड़ा कम आये।
मेरी ज़िंदगी का सबसे ‘यादगार उपहार’

मेरी तितली कैसी बनी है, शायद यही पूछ रही है बच्ची!
पांचवें दिन सुबह सुबह प्राथना के समय अमिताभ बच्चन चौधरी दो मोटी -मोटी बाजरे की रोटी और उनके ऊपर भरवाँ मिर्च का अचार लेकर हमारे सामने आया,हमने पूंछा ,ये किसलिए,वह बोला “मैडमजी मेरे पास आपको देने के लिए शिक्षक दिवस पर इसके सिवा कोई उपहार नही है,आपने मुझे मेरा सही नाम बताया ,अब मैं कभी भी गलत नही लिखूंगा । मेरी माँ ने कहा कि तुम्हें जो चीज सबसे अच्छी लगती है तुम उसे अपनी मैडम को देना और Thank you बोलना जैसे तुम्हारी मैडम जी बोलती हैं।”
अपने शिक्षक से गहरा जुड़ाव रखते हैं बच्चे

चित्रकारी करती हुई बच्ची, अपने मन के भाव को चित्रों में उकेरते हुए।
उसकी इस बात से मुझे अपने एक शिक्षक होने की जिम्मेदारी का एहसास और गहरा हो गया। एक छात्र अपने शिक्षक से किस सीमा तक जुड़ता है कि अपनी सबसे कीमती वस्तु जो स्वयं उसे अति दुर्लभ है उसे अपने शिक्षक को देने को तत्पर है। हमारे अपने बच्चे इतने साधन संपन्न होने पर भी अपनी प्रिय वस्तु देने में हिचकते हैं और ये कितना बड़ा त्यागी है। बहुत भावुक क्षण थे वो पर अविस्मरणीय।
(इस पोस्ट की लेखिका नन्दिनी राठौर हैं। उनकी रचनात्मकता का अंदाजा उनके विद्यालय की तस्वीरों से लगता है। बच्चों के साथ उनका काफी जुड़ाव है। शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले विमर्श और संवाद में उनकी सक्रिय भूमिका रहती है। अपने विद्यालय में जलेबी दौड़, सैंटा के बनाने व चित्रकला जैसे विविध क्षेत्रों में भागीदारी के लिए छात्र-छात्राओं को सतत प्रोत्साहित करती हैं। कुकिंग के क्षेत्र में भी उन्होंने एक मुकाम हासिल किया है। उनकी यह पोस्ट आपको कैसी लगी, टिप्पणी करके जरूर बताएं।)
Being a teacher I feel our students are our ideals and same is reflected by this teacher . Thank for sharing real touch.
बहुत ही मर्मस्पर्शी घटना है। आपके शब्दों के द्वारा सम्पूर्ण घटना का जिस प्रकार चित्रण हुआ है उसका प्रभाव हृदय से लेकर तुरन्त आँखों तक आ गया। अपने अनुभव को साझा करने के लिए आपका सहृदय धन्यवाद।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया इस टिप्पणी के लिए। ऐसे अनुभवों को लिखने के लिए शिक्षक साथी का शुक्रिया कहना चाहिए। ऐसे ही भाव और अहसास शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव की संभावनाओं से भरे हैं। अगर किसी शिक्षक का अपने बच्चों से ऐसा जुड़ाव हो तो बच्चे का सीखना और शिक्षक का अपने काम से संतुष्ट होना एक स्वाभाविक सी बात बन जाती है।
ये पोस्ट मेरे दिल को छू गयी | बच्चे में हमारे (शिक्षक) प्रति कितना लगाव एवं सम्मान होता है | यहाँ इसकी झलक देखने को मिली |
हमें भी बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाना चाहिये |
धन्यवाद संतोष जी ,आपके शब्द प्रेरणादायी है।
अगर सीखना है मानवता या सच्चाई तो बच्चों में सच्चाई और मानवता बचपन मे गूढ़ रूप से भरा होता है, लेकिन हम जो उनसे उम्र में बड़े हैं उनके सामने कुछ ऐसा कर देते हैं या उनको रोकते हैं जिससे उनके अंदर की सच्चाई और मानवता धीरे धीरे समाप्त होने लगती है। ऐसा कोई बच्चा नही होता है जिसमे कोई गलत आदत पैदा होते होती है। हम चाहे वो माँ बाप हो या शिक्षक, बच्चे को जिस प्रकार के वातावरण में रखेंगे या सिखाएंगे बच्चे वैसा ही विकास करेंगे।
लेकिन साथ ही एक शिक्षक के अंदर भी मानवता और सच्चाई वाला बोध होना चाहिए जैसे मैडम आप मे दिखा इस लेख को पढ़ने के बाद। एक वयस्क व्यक्ति को अपने काम, अपनी ज़िंदगी को बखूबी ढंग से चिंतन मनन करने चाहिए, इससे आपको पता चलेगा कि कौन सी बातें आज के दिन में हुई जी मुझे खुशी प्रदान कर्री हैं, जो मुझे मोटीवेट करती हैं और वो कौन से कार्य या गतिविधि थी जिससे अन्य लोगों को व स्वयम को तकलीफ हुई।
आप का यह लेख पढ़ कर अच्छा लगा। मेरी शुभकामनाये हैं आप ऐसे ही बच्चोँ के बीच बच्चे बनकर कार्य करें बिना किसी भय और रुकावट के।
धन्यवाद