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‘द्वंद से बचकर अच्छा लेखन या अच्छा साहित्य सृजन नहीं हो सकता’ – अंजलि नरोन्हा

सत्र की शुरुआत अंजलि नरोन्हा जी ने एक सवाल से किया कि समीक्षा क्यों और किसके लिए होती है? समीक्षा में हम किसको संबोधित करते हैं और इसका उद्देश्य क्या है? इस सवाल के जवाब में प्रतिभागियों ने कहा कि समीक्षा दूसरे लोगों के लिए होती है, इसमें किसी किताब की विषयवस्तु के साथ-साथ, चित्रों, भाषा शैली (भाषाई गुण, व अन्य पहलुओं पर विश्लेषणात्मक समीक्षा की जाती है ताकि उस किताब को खरीदने वाले या पढ़ने वाले उसके बारे में एक निर्णय कर सकें। इसके बाद सभी प्रतिभागियों को किसी एक पसंदीदा किताब की समीक्षा लिखने का असाइनमेंट दिया गया।

इसके बाद विभिन्न विधाओं का रिकैप किया गया। इसमें कहानी, यात्रा वृत्तांत, व्यंग्य, पत्र, संवाद, ग्राफिक टेक्सट, समाचार, निर्देश, विवरण इत्यादि पर संक्षेप में चर्चा हुई। इसके अगले सत्र में सभी प्रतिभागियों को 6 समूहों में बाँटकर सभी प्रतिभागियों ने संस्कृत मेरी कहानी पढ़ी जो मराठी कथाकार कुमुद पावड़े की आत्मकथा पर आधारित है। इसके ऊपर प्रतिभागियों ने अपने-अपने विचार रखे। चर्चा के प्रमुख बिंदु थे, “लेखक की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है? छूआछूत वाले बिंदु कौन-कौन से बिंदु कहानी में हैं, लेखिका ने कब तय किया कि उसे संस्कृत पढ़ना है? संस्कृत विषय का ही चुनाव लेखिका ने क्यों किया होगा? क्या दूसरे की भाषा को चुनना ही एक विकल्प था या कोई और विकल्प भी लेखिका के सामने था।

आत्मकथा पर चर्चा कैसे करें?

इस आत्मकथा के अंश पर विस्तृत चर्चा के बाद सभी प्रतिभागियों ने अलग-अलग समूहों में राख-राख सपने, उस गुड़िया के बिना (इंदिरा गांधी), मैथ का प्रोजेक्ट और उसी गिलास में दूध पिया (अमृता प्रीतम) जैसे जीवन वृत्तांत पढ़े। इसके संदर्भ में प्रतिभागियों ने आलेख को पढ़ने के बाद बताया कि लेखक की पृष्ठभूमि क्या है, कहानी का भौतिक वातावरण क्या है, लिखी गई सामग्री का संदर्भ क्या है, लेख लिखने वाले का नज़रिया क्या है, इन बिंदुओं पर सबने अपने विचार साझा किये। इस चर्चा के दौरान अंजली जी ने कहा कि द्वंद एक वास्तविकता है। नैतिकता हर पाठ में होती है, इसलिए हर टेक्सट के ऊपर विमर्श करना बेहद जरूरी है। हर कहानी में पात्रों के ऊपर तमाम दबाव होते हैं, जिसमें उनको चुनाव करना होता है। हमें बच्चों का ध्यान ऐसे चुनाव की तरफ ले जाना चाहिए। इसके बाद लंच हुआ।

पात्रों के माध्यम से कहानी पर चर्चा कैसे करें?

इसके बाद प्रतिभागियों ने अपने-अपने समूह में मैं तो बिल्ली हूँ, स्कूल में ताता, पायल खो गई जैसी दो-दो कहानियां हर समूह के लोगों को दी गई ताकि वे अपने जीवन के अनुभवों को लिखने या जीवन वृत्तांत को शब्द देने की तैयारी के बारे में विचार कर सकें। इसके बाद कहानी के ऊपर चर्चा हुई कि कहानी में कौन-कौन से पात्र हैं, उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है इत्यादि। इसके बाद सुनीता जी ने परिप्रेक्ष्य के ऊपर होने वाली चर्चा को एक गतिविधि के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्होंने प्रत्येक समूह को एक-एक असाइनमेंट दिया, समूह 2 और 5 को ‘सबकी अम्मा प्यारी अम्मा’ कहानी को गिलहरी के नज़रिये से लिखनी थी, वहीं समूह 3 और 5 को साइकिल की सवारी कहानी को महिला के नज़रिये से लिखना था।

जबकि विजयदान देथा द्वारा लिखित लोककथा तृणभारत को समूह नंबर 1 को दुकानदार और खरीददार की जगह महिला पात्रों को रखकर कहानी को दोबारा लिखने का असाइमेंट दिया गया। समूह 4 को तृण भारत कहानी को मक्खी के नज़रिये से लिखने के लिए कहा गया। सभी समूहों ने अपनी-अपनी कहानी को दोबारा लिखने के बाद एक के बाद एक प्रस्तुतिकरण किया। यह प्रस्तुतिकरण काफी जीवंत था, इसकी सभी प्रतिभागियों द्वारा काफी तारीफ की गई। सबके प्रस्तुतिकरण के बाद सुनीता जी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि समूह 5 ने पात्र के भीतर उतरने की कोशिश की है। इसमें इस्तेमाल होने वाले शब्द बताते हैं कि कहानी की मुख्य पात्र मक्खी ही है जैसे उसके लिए तिनके वाला गुड़ भी बहुत बड़े ढेले जैसा लगा, बिल्ली दौड़भाग से थककर हाँफ रही थी, इस कहानी में बाहर क्या हो रहा है, उस हिस्से को प्रमुखता के दायरे से बाहर निकाल दिया गया, जो नई कहानी की जरूरत के अनुरूप था। शेष टीम के प्रतिभागियों ने भी कम समय में एक अच्छी प्रस्तुति दी है। लेकिन कहानी को पात्रों में बदलाव के अनुरूप फिर से पात्रों को रिप्लेस करने में थोड़ी परेशानी प्रस्तुति में दिख रही थी। श्रीमती जी के दृष्टिकोण से साइकिल की सवारी कहानी को लिखने में समूह को चुनौती पेश आई।

नज़रिया है महत्वपूर्ण

नज़रिये को लेकर विस्तृत चर्चा हुई कि कैसे किसी कहानी को अगर अन्य पात्र के एंगल से लिखा जाये तो प्राथमिकताएं बदल जाती है। हर पात्र को मिलने वाला स्पेश और प्रमुखता को भी हमें नये सिरे से निर्धारित हकरना होता है। किसी प्रमुख पात्र को उस भूमिका से हटाकर नये पात्रों क प्रमुखता देना एक चुनौतीपूर्ण काम है, यह सतत अभ्यास और विचार-विमर्श की माँग करता है।

तृणभारत लोककथा को महिला पात्रों के नज़रिये से लिखने के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए प्रतिभागियों ने कहा कि हमने महिला पात्रों की लड़ाई पुराने तरीके से कराने के बजाय, कुछ नया करने की कोशिश करी। इस दौरान एक सवाल भी पूछा गया कि एक महिला पात्र ने दूसरी महिला पात्र के ऊपर प्रत्यक्ष हमला किया, लेकिन दूसरी महिला ने हमला करने वाली महिला पात्र को सीधे कुछ कहने की बजाय दुकान का सामान बिखेर दिया। अप्रत्यक्ष रूप से गुस्सा निकालने वाली बात एक ख़ास तरह के पूर्वाग्रह को ही स्थापित करती है। इस दौरान यह स्पष्ट हुआ कि किसी परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए पात्रों के भीतर घुसना बहुत जरूरी है। यह कहानी बिल्ली के नज़रिये से भी लिखी जा सकती है।

सबसे ख़ास बात है कि ओरिजनल स्टोरी लाइन से सबने शिफ्ट किया। अम्मा अगर खुद की कहानी लिख रही हैं तो ‘अम्मा सबसे प्यारी अम्मा’ कहानी का शीर्षक नहीं होता। ऐसे में शीर्षक मेरा प्यारा बच्चा या कुछ और हो सकता था। सुनीता जी ने कहा कि हमें ऐसे पात्रों के नज़रिये से भी किताबें लिखने व पढ़ने की जरूरत है जो हासिये पर हैं, जैसे नौकर, महिला, बेटी, रानी व आदिवासी क्षेत्र के रहने वाले बच्चों के जीवन को भी कहानी का कथ्य बनाने की जरूरत है।

इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अंजली जी ने कहा, “लेखक व पाठक दोनों के दिमाग़ में द्वंद अगर नहीं आता है तो वह वास्तविक लेखन न होकर एक रश्म अदायगी भर है। लिखते समय हमें ध्यान रखना होता है कि हम कहानी में मुद्दों का सीधा सामना करेंगे, या फिर चुभने वाली बात, या व्यंग्य के जरिये अपनी बात कहेंगे। आमतौर पर हमें वो चीज़ें अच्छी लगती हैं, जिनसे आप सीधे-सीधे जुड़ पाते हैं। द्वंद से बचकर अच्छा लेखन या अच्छा साहित्य सृजन नहीं हो सकता है।

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