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पुस्तक चर्चाः ‘हमारी गाय जनी’ – अभिलाषा राजौरिया

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लेखिका अभिलाषा राजौरिया, चित्रांकनकर्ता रमेश हेंगाडी और संकेत पेठकर, बुक की डि़ज़ाइन को अंतिम रूप देने वाले सौमित्र रानडे के संयुक्त प्रयासों का समुच्चय है किताब ‘हमारी गाय जनी’। वारली शैली की फोक आर्ट या चित्र शैली इस किताब को बेहद ख़ास बनाती है।

हमारी गाय जनी’ किताब में रंगों का बड़ी सजगता के साथ इस्तेमाल किया गया है। किताब के कवर पेज़ पर लाल रंग में गाय और उसके नवजात बछड़े को दर्शाया गया है। गाय अपने बछ़ड़े को चाट रही है। पृष्ठभूमि में पीले रंग का सूरज दिख रहा है, जो अभी पूरी तरह उगा नहीं है। यानि समय की गतिशीलता को चित्रांकन में सशक्त तरीके से अभिव्यक्ति किया गया है।

आकर्षित करता है कवर पेज़

वहीं सूरज की रौशन जब गाय और उसके बछड़े पर पड़ती है तो परछाईं निर्मित होती है, इतनी बारीकी से कवर पेज़ पर उकेरे गये चित्र सहज ही हमारा ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं। कवर पेज़ को अगर ध्यान से देखें तो नीला आसमान सबसे ज्यादा जगह घेरता है। यह गाँव के खुलेपन के अहसासा को भी चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, ऐसा कह सकते हैं। इसके साथ ही साथ पौधों के चित्र भी नीले आसमान का कुछ हिस्सा घेरते हैं।

किताब ‘हमारी गाय जनी’ की कहानी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित है, जहाँ की दिनचर्या कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और पशु पालन से गहरा जुड़ाव रखती है। गाँव में पालतू पशुओं के साथ किस तरह का रिश्ता होता है और कैसे उनकी परवाह या देखभाल की जाती है, उसकी झलक किताब की कहानी में है। किसी गाय के छोटे बछड़े का घर में आना एक उत्सव व खुशी वाला माहौल होता है। सुबह-सुबह की भागदौड़ जो आम दिनों से अलग होती है। उसका सहज चित्रण इस किताब में है।

यह किताब एक पृष्ठ दर पृष्ठ एक पेंटिंग की तरह से हमारी आँखों से सामने से पढ़ते हुए गुजरती है, जहाँ गाँव की ज़िंदगी दृश्यों के माध्यम से पाठक के सामने सजीव होती है। वारली या वर्ली शैली में बने चित्रों में पात्रों की जीवंतता व गति साफ देखी जाती है। उनके हाव-भाव को भी चित्रों में बड़ी संजीदगी से उभारा गया है।

ग्रामीण पृष्ठभूमि व बाल मनोविज्ञान का समन्वय

बालसुलभ जिज्ञासा जैसा गाय नन्दा आज मारने को क्यों दौड़ रही है? अगर मैंने आवाज़ देकर पूछ लिया कि क्या हो रहा है तो मुझे भी उठकर माँ की मदद तो नहीं करनी पड़ेगी? जैसे भावों में किताब में सहज ही अभिव्यक्ति होते हैं। इस किताब की सबसे बड़ी खासियत इसके चित्र हैं तो एक पेंटिंग की तरह से अपना विशेष प्रभाव पाठक पर छोड़ते हैं, चित्रों में दिखने वाले वस्तुएं जैसी घड़ी समय का संकेत दे रही है, मटके में पानी भरने का दृश्य है, झौवा रखा हुआ है जिसमें भरकर जानवरों को चारा देते हैं, सोने का दृश्य भी सुगमता के साथ चित्रित किया गया है, चित्रांकन की ख़ास बात है कि वे ग़ौर से देखने के लिए बतौर पाठक आपको आमंत्रित करते हैं। नीले आसमान पर उड़ती चिड़ियों का दृश्य भोर की उन आवाज़ों को भी हमारे ध्यान में ले आता है जो किसी भी गाँव में सुबह के समय वातावरण में मौजूद होती हैं।

कहानी के चित्र भी सुबह के बीतते समय के साथ बदलते हैं। जिंदगी फ्रेम के मुख्य हिस्से में अपनी जगह पाती है। खूंटे से बंधी गाय को देखने जाती दोनों बहनों का चित्र ऐसा है जैसे वे उत्साह में वहाँ जा रही हों। वहीं खूंटे से बंधी गाय कैसे अपने बच्चे को चाट रही है, जबकि माँ पानी गरम करने का काम कर रही हैं। जबकि दूसरे पन्ने पर दो मुर्गे दाना चुग रहे हैं। कह सकते हैं कि हर पन्ने पर बदलते चित्र एक विशिष्टता का अहसास कराते हैं। शब्द और चित्र एक-दूसरे के पूरक की तरह नजर आते हैं।

कहानी के प्रवाह को जीवंत बनाते चित्र

इस कहानी में बच्चों ने गाय के बछड़े का नाम मंगला रखा क्योंकि इसका जन्म मंगलवार के दिन हुआ था। मंगला बछड़े के बारे में जो भी बातचीत बच्चों के बीच में होती है, वह इस तरीके से हो रही है जैसे किसी परिवार के सदस्य के बारे में चर्चा हो रही है। यह बात कहानी को बच्चों के जीवन से सीधे-सीधे जोड़ती है। इसी तरीके से बछड़े के नामकरण में बच्चों की भूमिका भी रोचक है। स्कूल में जाने के बाद भी घर पर ध्यान लगा रहने वाली बात मुझे भी अपने बचपन के दिनों में ले जाती है।

स्कूल से वापस आने के बाद बच्चों में वही उत्साह होता था कि चलो चलकर गाय के बछड़े को देख आते हैं, लेकिन गाय के मारने का डर भी होता था। क्योंकि गाय बछड़ा देने के बाद कुछ दिनों तक फुंफकारती है और किसी को बच्चे के पास फटकने नहीं देना चाहती है। इस किताब में घड़ी का चित्र दो बार आया है, सुबह के पाँच बजे और रात के दस बजे, जो यह बताता है कि यह कहानी केवल एक दिन की परिधि में फैली हुई है। इस कहानी को किताब से पढ़ना एक ज्यादा सघन अनुभव है। यह हमारी कल्पना के लिए ज्यादा स्पेश छोड़ता है चित्रों की मौजूदगी के कारण एक विशिष्ट अनुभव कहानी को पढ़ते समय आता है।

कहानी पर बनी फिल्म और किताब की तुलना

फिल्म में कहानी को जीवंत करने का प्रयास किया गया है। इससे कहानी में जो आवाज़ें शब्दों के रूप में मौजूद होती हैं, वे ध्वनियों के रूप में दर्शक के लिए सजीव हो उठती हैं। ठहरी हुई तस्वीरों में सिमटे पात्र जीवंत हो जाते हैं। जो किताब में अमूर्त था, वह फिल्म में काफी हद तक मूर्त हो जाता है। सभी पात्रों को अलग-अलग, उनकी भव-भंगिमाओं के साथ पहचानना आसान हो जाता है। इस फिल्म में चटख रंगों का इस्तेमाल किया गया है, जो बच्चों का ध्यान आकर्षित करने व चित्रों की विशिष्टता को कुछ हद तक शामिल करने की कोशिश जैसा है। दोनों को साथ-साथ देखना एक अलग तरह के अनुभव से गुजरने का मौका देता है।

इस कहानी पर बनी फिल्म देखने के लिए यहां क्लिक करें

इस कहानी को पढ़ते समय मुझे राजस्थान के एक बच्चे की कही बात याद आई, जब उसने मुझसे कहा था कि आज हमारे यहाँ गाय की डिलीवरी हुई है। इस बात पर उसकी माँ ने टोका था और उसे स्थानीय भाषा का कोई अन्य शब्द इस्तेमाल करने के लिए कहा था। लेकिन बच्चे की खुशी उस वाक्य में महसूस हो रही थी, जिसे उसने अपने शब्द भण्डार से शब्द चुनकर बनाए थे। इसीलिए वह बात शायद आजतक याद रही।

(एजुकेशन मिरर का यह लेख पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया। लिखिए अपनी राय कमेंट बॉक्स में अपने नाम के साथ। शिक्षा से जुड़े लेख साझा करें educationmirrors@gmail.com पर।)

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