चन्द्रकिरण सोनरेक्साः ‘मैं चुराकर पढ़ती थी किताबें’
‘बचपन की बातें‘ किताब के लेखक संजीव ठाकुर हैं। उनकी लिखी इस किताब का प्रकाशन एकलव्य ने किया है। इसको वित्तीय सहयोग एडेलगिव फाउण्डेशन व टाटा ट्रस्ट्स के पराग इनीशिएटिव ने किया। इस किताब के बैककवर पर ग़ौर करने वाली बात संजीव ठाकुर के शब्दों में दर्ज़ है, “बचपन वह दौर है, जब हम तमाम चिन्ताओं से दूर खुलकर जीवन का आनंद लेते हैं। ‘लोग क्या सोचेंगे’,इस ख्याल से दूर हर पल को पूरी तरह जीते हैं। शायद इसीलिए बचपन की घटनाएं ताउम्र रह-रहकर याद आती हैं।”
आगे चन्द्रकिरण सोनरेक्सा के बचपन की बातों का अंश पढ़िए। उम्मीद है कि यह हिस्सा आपको भी अपने बचपन की याद दिला देगा।
मुझे पढ़ने का शौक बचपन से ही था। घर में कई पत्र-पत्रिकाएं आती थीं – तेज़, ज़मींदार, क्रान्ति, बालसखा आदि। बाबूजी शाम को इनसे समाचार पढ़कर आसपास के लोगों को सुनाया करते थे। मैं भी सब पत्र-पत्रिकाएं पढ़ जाती थी। मँझले भैया लाइब्रेरी के सदस्य थे। वे भी किताबें लाया करते थे। बड़ी दीदी के ससुराल से आने पर रोज़ एक किताब लाया करते थे। दीदी किताबें पढ़कर उसे बक्से में छुपा देती थीं। मैं उनसे किताबें माँगती तो वे कहतीं, “बड़ी हो जाओ, तब पढ़ना।”
मेरी समझ में नहीं आता था कि वे ऐसा क्यों कहती हैं। बस मैं किताबें चुराकर पढ़ने लगी। एक बार भैया देवदास लेकर आए। दीदी ने पढ़कर उसे बक्से में रख दिया। मैंने वह किताब निकाल ली और रसोई में चावल वाले डिब्बे में छुपाकर रख दिया। मौका निकालकर मैं किताब के कुछ पेज़ पढ़ती और वहीं रख देती। किताब खत्म होने पर मैंने उसे दीदी के बक्से में रख दिया। एक दिन मँझले भैया और दीदी देवदास पर चर्चा कर रहे थे। बीच में मैं बोल पड़ी – “देवदास तो बिल्कुल निकम्मा था! जब पारो उसके घर आई तो उसे भगा दिया, और उसकी शादी होने पर शराब पीने लगा।” दीदी आश्चर्य में पड़ गईं। हड़बड़ाकर उन्होंने मुझसे पूछा – “तुमने देवदास कहाँ पढ़ी? मैंने उन्हें बता दिया कहाँ पढ़ी।
देवदास की तरह हातिमताई पढ़ने से भी दीदी मना करती थीं। मैं उसे भी छुपकर पढ़ गई। यह किताब मुझे लीला के घर मिली थी। मैं लीला को बुलाने उसके घर गई थी। वह वहाँ नहीं थी। मैं उसके घर के अंदर चली गई। वहाँ एक कमरे की आलमारी में मुझे पुरानी सी किताब नज़र आई। उलटकर देखा तो हातिमताई थी। मैं उसी आलमारी के ऊपरी खाने में पैर मोड़कर लेट गई और किताब पढ़ने लगी। इधर घर में सभी परेशान थे। ढूंढने पर भी मैं कहीं नहीं मिल रही थी। लीला के घर वालों ने बताया, “वह कई घंटे पहले यहाँ आई थी।”
तीन-चार घंटे में हातिमताई पढ़कर जब मैं आलमारी से नीचे कूदी तो आवाज़ सुनकर लीला का भाभी आ गईं। उन्होंने मुझे घर भेजा। पसीने से लथपथ मैं घर पहुंची। संयोग से दीदी दरवाज़े पर मिल गईं। मेरा यह हुलिया देखा। पूछा तो बता दिया, “यह पसीना है मैं हातिमताई पढ़कर आई हूँ। दीदी ने मुझे जल्दी से नहाने को कहा। माँ के गुस्से और पिटाई से बचाया।
माँ की बीमारी के समय जब मेरा स्कूल जाना छूट गया, मैं किताबें पढ़ा करती थी। एक बार तो किसी पत्रिका को पढ़ने में इतना डूब गई कि चूल्हे पर चली सब्जी जलकर राख हो गई। जली हुई सब्जी की गन्ध से माँ कमरे में आ गई। बाबूजी भी दरवाज़े से आ गए। माँ मुझे पर गुस्सा करने लगी। बाबूजी ने उनके गुस्से को शान्त करके हुए कहा – “जाने दो, गलती हो गई। मैं पतीले में पानी भरकर रख दूँगा। बैंगने पड़े हैं, मैं आलू-बैंगन चढ़ा देता हूँ। तुम परेशान मत होओ।”
आखिर में कुछ जरूरी जानकारी, इस किताब की कीमत 95 रुपये है। यह किताब किशोर-किशोरियों व शिक्षकों को काफी पसंद आ रही हैं,जिनको मैंने खुद से किताब के कुछ हिस्से पढ़कर सुनाए हैं। या उनको अपने सामने इस किताब को पढ़ते और इसकी चर्चा करते हुए देखा है। यह किताब घर की लाइब्रेरी में रखने योग्य किताब है और स्कूल के पुस्तकालयों में इसे अवश्य शामिल किया जाना चाहिए।
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Very nice experience shared by girl..
किताबों के प्रति गहरी निष्ठा और लगन होनी ही चाहिए ।बहुत ही खूबसूरत यादे हैं ।🙏🙏