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आलेखः सीखने का वास्तविक अर्थ क्या है?

गजेन्द्र राउत लिखते हैं, “मुझे आपको बताते हुए खुशी हो रही है कि एक अभिभावक ने आलेख पढ़कर मुझसे पूछा कि आप ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने के खिलाफ क्यों हैं? जबकि हमारे पास दूसरा कोई रास्ता इस महामारी के समय नहीं है? एक बात मैं यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं ऑनलाइन पढ़ाना और पढ़ने के खिलाफ नहीं हूँ। मुझे समस्या है तरीके की, और वह तरीका संचालित होता है ,किसी के लिए “सीखने” का क्या मतलब है? इस बात का असर ऑनलाइन हो या ऑफलाइन, दोनों के ऊपर होता है। खासकर बच्चों के सन्दर्भ में। शेष विस्तार से पढ़िए इस लेख में।”

पिछले आलेख में ऑनलाइन पढ़ाना और पढ़ने को लेकर बात की गई थी जिससे काफी समस्याएं निर्माण हो रही है?” उस लेख में सवाल उठाये गये थे कि क्या छोटे बच्चे भी बड़ों की तरह ऑनलाइन सीख सकते है? क्या एक वयस्क जैसे सीखता है वैसे ही छोटे बच्चे भी सीखते है? सीखना-सिखाना चाहे ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन, इफेक्टिव नहीं हो सकता अगर सीखने वाले की समझ में इजाफा नहीं होता है, पढ़ाना मतलब सिर्फ बताना नहीं होता और सीखने का मतलब सिर्फ बताया हुआ सुनना नहीं होता है. ऐसे में फिर सवाल आता है कि “सीखने” का मतलब क्या है?

सीखने के वास्तविक मायने क्या हैं?

सीखना मानव गतिविधियों में सबसे आम है। अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग लोगों के लिए सीखने के अलग-अलग अर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए, साइकिल चलाना सीखना गणित सीखने से अलग है; भौतिक विज्ञान सीखना नैतिकता से अलग है। अगर कोई पढ़ाया गया विषय समझ में आया कि नहीं इसका यह पता लगाना है, तो यह जानना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि विभिन्न संदर्भों में वास्तव में सीखने का क्या मतलब है। बेशक, सीखना कई तरीकों से हो सकता है। “सीखने” के बारे में कोई क्या सोचता है इसका पढ़ाने के लिए और मूल्यांकन के लिए निहितार्थ हैं।

1940 के दशक में यह यह माना जाता था कि सीखना मतलब व्यवहार में तुलनात्मक रूप से कोई कम या ज्यादा स्थायी परिवर्तन जो अनुभव का परिणाम है। अगर हम गहराई से देखें तो, सीखने की यह परिभाषा ज्ञान, विश्वास, दृष्टिकोण और मूल्यों के बजाय सीखने के औसत दर्जे के व्यवहार परिणामों पर केंद्रित है। इस तरह की शिक्षा में शिक्षक की भूमिका ज्ञान देने वाले की होती है और बच्चे की ज्ञान ग्रहण करने वाले की , जिसमे बच्चे का सहभाग निष्क्रिय माना जाता है जिसका उदाहरण है – जॉन लॉक का तबुला रसा मतलब कोरी पाटी जिसमे ज्ञान भरना होता।

इसमें शिक्षक को एक विशेष क्षेत्र में एक विशेषज्ञ के रूप में माना जाता है और यह एक निष्क्रिय व्यक्ति को केवल जानकारी देने के लिए अच्छा होता है। यह दृष्टिकोण 1950 के दशक में लोकप्रिय हुआ। यह मान लिया गया था कि हम परीक्षण और परीक्षाओं का संचालन करके बुद्धिमत्ता और सीखने को माप सकते हैं, और ये हमें जो सीखा गया है उसकी स्पष्ट समझ देते हैं।

सीखने का ऐतिहासिक संदर्भ में विश्लेषण

हालाँकि सीखने के इस दृष्टिकोण की 1970 के दशक में काफी आलोचना हुई और व्यवहारवादियों ने माना कि उनका मानवीय सीखने को लेकर जो दृष्टिकोण है वह बहुत ही सीमित है। अगर आप आसपास नजर दौड़ाते है तो पाएंगे की आजकाल ऑनलाइन शिक्षा के नाम पे यही हो रहा है (मै ये बात खास करके बच्चों के संदर्भ में कह रहा हु, हालाँकि ये बात कॉलेज के बच्चों के लिए भी उतनी ही सच है, एक साथ 50, 60, 70 कभी कभी 150 तक बच्चे एक साथ ऑनलाइन क्लास ज्वाइन करते है, शिक्षक बताते हैं और बच्चे सुनते हैं, चैप्टर ख़तम होता है, पीडीएफ फाइल आती है, जिसमे कुछ प्रश्न होते है, उनको लिखकर भेजना होता है। सत्र के दौरान कोई सीखा या नहीं सीखा इससे किसी को लेना-देना नहीं, क्या इससे सीखने में वृद्धि हो रही है? ऐसे लगता है सभी अपना-अपना कर्तव्य निभा रहे है, यह बात ऑफलाइन के लिए भी उतनी ही सच है अगर हम सीखने के इस दृष्टिकोण को मानते हैं।

“सीखना” क्या होता है इसके नए विवरणों के साथ संज्ञानात्मकवादी आए, जिसे ‘कंस्ट्रक्टिविस्ट मॉडल या रचनावादी मॉडल’ कहते है। जिसमे सीखने वाले को ज्ञान का निर्माण करने वाले एक सक्रिय और स्वतंत्र अर्थ-निर्माता के रूप में सोचा गया। इस रचनावादी मॉडल में, शिक्षक और शिक्षार्थी की उपरोक्त मॉडल (रिसेप्टिव-ट्रांसमिशन) की तुलना में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ होती हैं। शिक्षक इस मॉडल में एक प्रमुख स्थान रखता है, लेकिन वह नए ज्ञान, कौशल और अवधारणाओं की खोज को सुविधाजनक बनाने, छात्रों को कनेक्शन बनाने और नई अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में मदद करने के लिए माना जाता है। रचनावादी सीखने को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखते हैं जिसमें नए और पुराने अनुभवों के बीच संबंध बनाना, नए ज्ञान को एकीकृत करना और नए स्कीमा (समझ का तानाबाना ) का विस्तार करना शामिल है।

सीखनाः प्रक्रिया बनाम उत्पाद

सीखना एक प्रक्रिया है, उत्पाद (प्रोडक्ट) नहीं। सीखने की इस प्रक्रिया में चाहे बच्चा हो या वयस्क, ज्ञानेन्द्रियो के द्वारा (आँख, कान, त्वचा, जीभ, नाक) अनुभव प्राप्त करते है। इन अनुभवों के संकेत मस्तिष्क तक जाते है। मस्तिष्क उन अनुभवों को अमूर्त बनाकर अवधारणाएँ बनाता है। मस्तिष्क इन अवधारणाओं को विभिन्न संजालो के रूप में व्यवस्थित करता है। इस प्रकार हुए अनुभवों को, अवधारणाओं (कॉन्सेप्ट) को और संजालो को मस्तिष्क याद रख सकता है। जरुरत पड़ने पर इन चीजों को पूण: स्मरण भी करता है। अवधारणाओं के आपसी सम्बन्धो का ढांचा ही हमारी समझ होता है, जो सीखने का परिणाम है। आपके लिए नीचे एक समझ का संभावित ढांचा दिया गया है। यह बढ़ता ही जायेगा, जैसे-जैसे उससे सम्बंधित अनुभव होंगे।

चित्र: समझ का संभावित ढांचा

इस रचनावादी मॉडल के लिए मूल्यांकन कार्य और फीडबैक की प्रक्रियाएं अलग-अलग होंगी, जो की विद्यार्थियों से अपेक्षा रखती है की वे सक्रिय रहे और समस्या की गहराई से जाँच पड़ताल करे। उदाहरण के लिए, किसी गणितीय समस्या को हल करते समय, बच्चे तर्क निर्माण की प्रक्रिया में लगे होते हैं। वे पहले से ही सीखी गई या उनके बारे में मौजूदा ज्ञान को एक साथ खींचकर ऐसा करने की कोशिश करते हैं। वे समाधान को खोजते-खोजते अपने तर्क का निर्माण और पुनर्निर्माण करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी अपनी समझ उत्तरोत्तर बढ़ती है जो की पिछले ज्ञान और सीखने के अनुभवों के साथ व्याख्या, अर्थ और कनेक्शन के रूप में परिष्कृत होती जाती है। सीखने के इस दृष्टिकोण को मानने वाले का कक्षा में व्यवहार/या चाहे ऑनलाइन क्लास हो, उसमे बदलने के संभावना है।

सीखने का मूल्यांकन से क्या संबंध है?

अगर किसी शिक्षक के पास सीखने को लेकर यह दृष्टिकोण है और वह जानता है कि बच्चे का मूल्यांकन क्यों कर रहा है, यह विचार उसे यह तय करने में एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करता है कि बच्चे का मूल्यांकन करने के लिए कौन सी तकनीकें लागू की जाए। गणित में “क्यों” को समझने के लिए, शिक्षक को गणितीय अवधारणाओं की पूरी समझ होनी चाहिए। तभी वह उन जटिल गणितीय विचारों को बच्चों को समझा पाता है। नीचे गणित की कक्षा के रोजमर्रा के अनुभव से एक उदाहरण दिया है –

एक कक्षा में मैं बच्चों की नोटबुक देख रहा था , मेरी नजर निचे दिए गए उदाहरण पर पड़ी।
25
+36
——-
511

मैंने तुरंत गलत x नहीं लगाया । मैंने बच्चे को पास बुलाया और उसके साथ बातचीत की । बातचीत कुछ इस तरह रही :

शिक्षक : यहां आओ और पढ़ो तुमने नोटबुक में क्या लिखा?
छात्र: पच्चीस प्लस छत्तीस , बराबर पाँच सौ ग्यारह

शिक्षक : बताओ दस प्लस दस कितने होते है ?
छात्र: बीस

शिक्षक: बीस प्लस बीस कितने होते है ?
छात्र: चालीस

शिक्षक: चालीस प्लस चालीस कितने होते है ?
छात्र: अस्सी

इस समय तक छात्र को एहसास हो गया कि उसने गणना में कुछ गलतियाँ की हैं, मैंने छात्र के साथ बात करना जारी रखा।

शिक्षक: आप 25 और 36 देख सकते हैं, दोनों 40 से छोटे हैं, अगर 40 प्लस 40 से 80 होते हैं, तो 25 प्लस 36 पाँच सौ ग्यारह नहीं हो सकते है
छात्र: हां, यह नहीं हो सकता, यह 80 से कम होना चाहिए

मुझे लगता है कि मात्रा की यह समझ उस समस्या को समझने की शुरुआत है। मैंने छात्र को एक संख्या प्रणाली में समूहीकरण की अवधारणा को समझने में मदद की। इसके लिए मुझे कुछ अवधारणाओं पर वापस जाने की आवश्यकता पड़ी।

समस्या का समाधान, तर्क और विश्लेषण

यहाँ आपने देखा बच्चे ने समाधान को खोजते खोजते अपने तर्क का निर्माण और पुनर्निर्माण किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी अपनी समझ बढ़ी जो की पिछले ज्ञान और सीखने के अनुभवों के साथ व्याख्या, अर्थ और कनेक्शन के रूप में और परिष्कृत हुई। मेरा मानना है कि गणित जैसे विषयों में यदि कोई बच्चा यह नहीं समझ पाया कि वह क्या कर रहा है, जो भी कर रहा है , वैसा ही ही क्यों कर रहा है, तो यह भविष्य में समस्याएं पैदा कर सकता है, वह विषय की प्रकृति के कारण गणित में उच्च अवधारणाओं को नहीं समझ सकता है जैसे की गणित में आगे बढ़ने से पहले हर कदम को समझना चाहिए। ऐसी समस्या से ग्रस्त 90% प्रतिशत उदहारण मिलेंगे जब आप बच्चो के साथ अपूर्णांको (फ्रैक्शन ) जैसी अवधारणाओं पर काम करेंगे।

सीखने में बच्चों की सक्रिय भूमिका है

इसके बाद सीखने का और एक सिद्धांत आया, जिसमें ज्ञान के निर्माण में या बच्चे के सीखने में दूसरों की भूमिका भी शामिल थी। इसमें माना गया की ‘सीखना दूसरों के साथ काम करने के रूप में ज्ञान का निर्माण करना है। इसके विपरीत, डैन इसे सीखने के एक प्रशिक्षुता मॉडल के रूप में संदर्भित करते हैं; इस मॉडल को गणित में सिचुएटेड लर्निंग के क्षेत्र से संबंधित माना जाता है। सीखने के इस मॉडल के अनुसार, छात्र, स्कूल और अपने जीवन के अन्य क्षेत्रों में अलग-अलग तरह से गणित सीखते और करते हैं। कुछ शोधकर्ताओं ने जांच की है कि कैसे एक वातावरण में पूरी तरह से मग्न होकर सामाजिक संदर्भ गणित सीखने में सक्षम बनाते है। उदाहरण के लिए लेव ने किराने की खरीदारी का अध्ययन किया, और तेरसिंहा, श्लिमान और कैर्र ने सड़क का गणित और स्कूली गणित का अध्ययन किया। गिप्स का कहना है कि सीखने के इस मॉडल में, केवल एक व्यक्ति अपने सीखने के लिए ज़िम्मेदार नहीं है, अपितु वयस्कों द्वारा समर्थन या साथियों के साथ सहयोग उसे विकास के उच्च स्तर को प्राप्त करने में सक्षम बनाता है।

शिक्षाशास्त्र (पढ़ाने के तरीकों) और मूल्यांकन के लिए इस मॉडल के विशेष निहितार्थ हैं। यह मॉडल कक्षा में अधिक समानता की परिकल्पना करता है, जिसमें शिक्षक स्वयं को एक शिक्षार्थी के रूप में, नए ज्ञान के सूत्रधार के रूप में देखता है, और शिक्षार्थियों को मौजूदा ज्ञान के साथ संबंध बनाने में मदद करता है, नए ज्ञान की खोज करता है और नई अंतर्दृष्टि प्राप्त करता है। यह उसे आत्म-चिंतनशील बनाने का प्रयास करता है। सीखने की प्रक्रिया को एक सहयोगी संवाद के माध्यम से सुविधाजनक बनाता है। इस पूरी प्रक्रिया में “चॉक एंड टॉक ’ और आकलन के लिए समयबद्ध कागज और पेंसिल परीक्षणों का महत्व न्यूनतम हो जाता है। सीखने की प्रक्रिया को सुलभ बनाने के लिए, सीखने के माहौल को बनाने के लिए शिक्षक के पास कई प्रकार के उपकरणों और तकनीकों का होना आवश्यक है, जिसमें छात्र सहयोग करके सीख सकते हैं।

उदाहरण के लिए, इसमें गणित के ऐसे पाठ शामिल होंगे, जो विद्यार्थियों को केवल उत्तर देने के लिए कहने के बजाय प्रश्न तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। एन सी एफ 2005 के अनुसार, शिक्षक बच्चों से खुले छोर वाले प्रश्न पूछ सकते हैं, जैसे की

यदि आप जानते हैं कि २३५ + ३६ = ६०२, तो २३४ + ३६९ कितना होता है? आपको इसका उत्तर कैसे मिला?

५३८४ में किसी एक अंक को बदलें। क्या संख्या में वृद्धि या कमी हुई है? कितनो के द्वारा?’

एक समूह में यह एक उपयुक्त मूल्यांकन गतिविधि है। इस तरह के मूल्यांकन कार्यों में आमतौर पर स्पष्टीकरण की अनंत संभावनाए होती है , और समस्या को हल करने के एक से अधिक तरीके होते हैं। सेराफिनी का तर्क है कि सीखने के कई पहलुओं की पूर्ण सीमा तक उपयोग करने के लिए, हमें मूल्यांकन के विभिन्न तरीकों की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, माप के रूप में मूल्यांकन का उपयोग बहुगुणित तथ्यों और मानक एल्गोरिदम को याद करने के लिए किया जा सकता है, ताकि परिचित प्रश्न हल किए जा सकें, जबकि गणितीय अवधारणाओं और संज्ञानात्मक कौशल और प्रक्रियाओं की समझ को एक खोजी परियोजना में विद्यार्थियों को उलझाने के द्वारा या गणितीय समस्या को सुलझाने की प्रक्रिया के द्वारा अधिक उचित रूप से मूल्यांकन किया जाता है। । औपचारिक आकलन के अलावा अन्य तरीके भी हैं, उदाहरण के लिए, दैनिक अवलोकन, बच्चो से बातचीत और चर्चाएं ये सभी समयबद्ध कलम और कागज के रूप में जो आकलन होता है उससे कई अधिक जानकारी प्रदान करते है।

सीखने की प्रक्रिया का विश्लेषण

हाल के घटनाक्रम में सीखने के सिद्धांत सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांतकारों से आए हैं, जिनमें मानव-विज्ञानी भी शामिल हैं। दो रूपक सीखने के इन सभी सिद्धांतों को रेखांकित करते हैं: अधिग्रहण और भागीदारी। मोटे तौर पर, हम कह सकते हैं कि व्यवहारवादी सिद्धांत और निर्माणवादी सिद्धांत कौशल, ज्ञान और समझ के अधिग्रहण से संबंधित हैं, जबकि सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत सीखने को सांस्कृतिक गतिविधि में भागीदारी के रूप में देखते हैं। ये सिद्धांत और रूपक हमें विभिन्न लेंसों के माध्यम से “सीखने की प्रक्रिया” को देखने में और समझने में मदद करते हैं और हमें मूल्यांकन के लिए सीखने और इसके निहितार्थों के बारे में हमारे विचारों को चुनौती देने में मदद करते हैं। मुझे लगता है कि शिक्षण और मूल्यांकन की योजना बनाते समय शिक्षक द्वारा उपरोक्त सभी विचारों पर विचार किया जाना चाहिए जिससे उन्हें अपने शिक्षण को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है चाहे वह ऑनलाइन हो या ऑफलाइन ।

आलेख के अगले भाग में इस बात को रेखांकित करने की कोशिश कि है की कैसे शिक्षक का व्यवहार उसके पूर्वज्ञान द्वारा निर्देशित होता है और अगर उसके मान्यताओं (असम्प्शन) में बदलाव लाया जाये तो कैसे वह कक्षा में किसी गतिविधि को उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए बुद्धिमत्तापूर्ण और सचेतन तरीके से प्रयास कर सकता है, उसके प्रयासों में सार्थकता और संगति बनी रहती है। आलेख के अंतिम भाग में तमाम शिक्षकों के साथ बातचीत के बाद वह “सीखने” को क्या समझते है, गणित शिक्षण के बारे में क्या सोचते है, विषयवस्तु के आकलन के बारे में क्या सोचते है, इस सोच का उनके कक्षा में पढ़ाते समय क्या असर होता है इस का विश्लेषण किया है और अंत में स्थिति सुधारने हेतु कुछ सुझाव भी दिये है.

(लेखक गजेन्द्र राउत शिक्षा के क्षेत्र में पिछले 14 सालों से काम कर रहे हैं। ‘जिज्ञासा इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग एण्ड डेवेलपमेंट’ जो महाराष्ट्र के अमरावती जिले में स्थित है, उसके संस्थापक हैं। एजुकेशन मिरर की ‘कोर टीम’ का हिस्सा हैं। आपने दिगंतर, रूम टू रीड, टाटा ट्रस्ट्स के पराग इनीशिएटिव (प्रोग्राम मैनेजर लाइब्रेरीज़) जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में काम किया है। इसके साथ ही साथ राजस्थान और छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों के लिए गणित विषय की पाठ्यपुस्तकों को लिखने में भी योगदान दिया है। लंदन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूटऑफ एजुकेशन से एमए (करिकुलम, पेडागॉडी एण्ड असेसमेंट) किया है। इस लेख को पढ़िए और अपने सुझाव व विचारों को टिप्पणी के रूप में जरूर लिखें।)

10 Comments on आलेखः सीखने का वास्तविक अर्थ क्या है?

  1. Archana Patil // July 12, 2021 at 10:42 am //

    खूप छान लेख लिहला आहे सर, पण मला, यदि आप जानते हैं कि २३५ + ३६ = ६०२, तो २३४ + ३६९ कितना होता है? आपको इसका उत्तर कैसे मिला? या वाक्याचा अर्थ नाही समजला आहे.

  2. Mamta sharma // April 22, 2021 at 8:03 am //

    Your artical has changed my perspective towards learning and teaching . Thanks for such an amazing content.

  3. RAM SINGH // April 5, 2021 at 1:26 pm //

    sir
    bhaut shahi waranan kiya aane.

  4. Anonymous // March 24, 2021 at 1:44 pm //

    Bahot hi acha alekh hai

  5. Nikita Pramod Hambarde // March 11, 2021 at 6:48 pm //

    This is a well written article Sir ! You explained very well what learning is and also gave an appropriate examples that everyone can understand easily. Good to read your beautiful article Sir.

  6. रमेश साव // March 7, 2021 at 9:21 am //

    बहुत अच्छा लेख

  7. Anonymous // March 7, 2021 at 9:20 am //

    Apane bahotahi acchese sikhaneke baare me apana bahumol mat diya hai.Uske liye hum abhari hai…

  8. Very informative

  9. Deopriyan // March 6, 2021 at 10:43 pm //

    यह बात सच है की सीखना-सिखाना चाहे ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन, इफेक्टिव नहीं हो सकता अगर सीखने वाले की समझ में इजाफा नहीं होता है

  10. Anonymous // March 6, 2021 at 10:32 pm //

    Aapka aalekh padhake mujhe achcha laga

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