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कम उम्र के बच्चे पूरा करेंगे ‘नामांकन का लक्ष्य’?

बच्चे, पढ़ना सीखना, बच्चे का शब्द भण्डार कैसे बनता हैराजस्थान के नए शिक्षा सत्र में सौ फीसदी नामांकन का लक्ष्य हासिल करने संबंधी दिशा-निर्देश जारी हो गये हैं। पहली अप्रैल से प्रवेश उत्सव शुरु हो रहा है। इस अभियान के तहत पहली कक्षा में नये बच्चों को प्रवेश दिया जाता है।

हर साल बहुत से स्कूलों में पहली कक्षा में बड़े पैमाने पर कम उम्र के बच्चों का प्रवेश होता है। जबकि शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक पहली क्लास में बच्चों को प्रवेश देने की उम्र छह साल निर्धारित की गई है। इसके कारण बहुत से बच्चों को हर साल स्कूलों में तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे बच्चों के लिए ज्यादा देर तक स्कूल में बैठना मुश्किल होता है।

ये बच्चे प्रवेश के बाद जुलाई के शुरुआती एक-दो सप्ताह ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल आते हैं। इसके बाद तीसरे-चौथे सप्ताह से कम उम्र के बच्चे स्कूल आना बंद कर देते हैं। अगर स्कूल आते भी हैं तो अपने भाई-बहनों के साथ बड़ी कक्षाओं में बैठना पसंद करते हैं। बहुत से ऐसे बच्चे 45 दिन लगातार अनुपस्थित रहने के बाद ‘ड्रॉप आउट‘ हो जाते हैं। जिनको स्कूल से जोड़ने के लिए फिर से तमाम कोशिशें होती हैं।

शिक्षकों की जिम्मेदारी

एक बार फिर ये बच्चे कुछ दिनों के लिए स्कूल आते हैं। उसके बाद से फिर घर पर रुक जाते हैं। अगले साल ये बच्चे क्रमोन्नत होकर दूसरी क्लास में चले जाते हैं। वे नये सत्र में दोबारा स्कूल आना शुरू करते हैं। मगर दूसरी क्लास तक आतेआते इन बच्चों के बारे में न सीखने, अनियमित होने जैसी धारणाएं बन जाती हैं।

शिक्षक इस नज़रिये के साथ अभिभावकों के साथ संवाद करते हैं तो अभिभावकों से भी कोई जवाब देते नहीं बनता है। लिहाजा वे भी कुछ न कहते हुए असहयोग आंदोलन पर उतर आते हैं। शिक्षकों द्वारा बच्चों के बारे में पूछे जाने पर कोई न कोई अच्छा बहाना बना लेते हैं। बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते। परीक्षा नजदीक आने पर बच्चों के बारे में फिर से पूछताछ होती है तो कहते हैं कि परीक्षा के लिए कल भेज देंगे स्कूल।

सरकारी स्कूलों के बारे में एक धारणा सी बनती चली जा रही है कि वहां तो कुछ भी संभव है। बच्चों को पढ़ाना। बच्चों को स्कूल तक लाना। बच्चों को खाना खिलाना। बच्चों को पास करना। उनका बैंक में खाता खुलवाना और अन्य जरूरी काम करना शिक्षकों की जिम्मेदारी है।

अभिभावकों की भूमिका

ऐसे में अभिभावक अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। स्कूल की सफलता एक सामूहिक सफलता है, जिसमें समाज व समुदाय के विभिन्न लोगों का योगदान होता है। उसी तरीके से स्कूल की असफलता के लिए तमाम कारक जिम्मेदार हैं। किसी एक कारक को प्रमुख मानकर बाकी सारी बातों को गौड़ मान लेने वाली प्रवृत्ति सही नहीं है। आज के दौर में जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों की जवाबदेही तय करने के साथ-साथ अभिभावकों की भी जिम्मेदारी तय हो कि वे अपने बच्चों को नियमित स्कूल भेजेंगे। कम उम्र के बच्चों को स्कूल में प्रवेश देने के लिए शिक्षकों व स्कूल के प्रधानाध्यापक के ऊपर दबाव नहीं डालेंगे।

ऐसा ही संदेश शिक्षा से जुड़े अधिकारियों की तरफ से भी जाना चाहिए कि आप किसी भी हाल में सिर्फ नामांकन का लक्ष्य हासिल करने के लिए कम उम्र के बच्चों का नामांकन मत करिये। क्योंकि शिक्षा का अधिकार क़ानून तो छह से चौदह साल तक के बच्चों के लिए है।

कम उम्र में एडमीशन क्यों?

अगर कम उम्र में शादी नहीं हो सकती है, तो फिर कम उम्र में स्कूल में एडमीशन क्यों हो रहा है? इसके लिए भी सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की तरफ से विज्ञापन आना चाहिए, “स्कूल में छह साल से कम उम्र के बच्चों का एडमीशन न करें। ऐसा करना डण्डनीय अपराध है। ऐसा करके आप बच्चे के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। छोटे बच्चों को आंगनबाड़ी भेजें। उन्हें स्कूल न भेजें। पहली क्लास में प्रवेश के लिए बच्चे की उम्र छह साल होने तक इंतज़ार करें।”

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