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शिक्षा का अधिकारः क्या है वास्तविक स्थिति

निःशुल्क और आनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून-2009 कहता है ” संविधान में अधिष्ठापित मूल्यों तथा ऐसे मूल्यों के अनुरूप पाठ्यचर्या (करिकुलम) के विकास का प्रावधान करता है, जो बच्चे के ज्ञान, क्षमता एवं प्रतिभा का निर्माण करते हुए तथा बालअनुकूलन एवं बाल केंद्रित अध्ययन के माध्यम से डर, ट्रोमा एवं चिंता से मुक्त करते हुए बच्चों के चहुंमुखी विकास का सुनिश्चय करेंगे। “
‘परीक्षा हो जाए, फिर काम पर चलते हैं’
शब्दावली ऐसी कि शब्दकोश का सहारा लेना पड़े। यह तो कानून की भाषा है कठिन तो होगी ही। मगर इसके सामाजिक प्रभावों की पड़ताल करने पर ही वास्तविक स्थिति का अंदाजा लगता है कि आखिर तमाम दावों की जमीनी हकीकत क्या है ?
आदिवासी अंचल के दो बच्चे आपस में बात कर रहे हैं। अरे मैं पिछले साल भी काम करने के लिए अहमदाबाद गया था। इस साल भी काम पर जा रहा हूं, तुम भी साथ चलोगे क्या ? हां मैं भी चलुंगा, बस जरा परीक्षाएं खत्म हो जाएं। अगर बीच में छोड़कर गए तो रोज-रोज गुरु जी घर आकर पूछेंगे कि मैं कहां पर हूं घर वाले उनको क्या जवाब देंगे इससे बेहतर है कि परीक्षाएं बीत जाएं, उसके बाद कहीं पर काम करने के लिए चलते हैं। गर्मी की छुट्टियां भी बात जाएंगी और कुछ कमाई हो जाएगी। आगे चलकर पैसा कमाने के लिए कोई न कोई काम तो करना ही पड़ेगा। काम से छुटकारा तो मिलने से रहा। जिम्मेदारी की ऐसी भावना आदिवासी अंचल के छात्रों के अंदर बड़ी सहज सी बात है। जो उनसे संवाद के दौरन सहज अभिव्यक्ति पाती है।
‘पढ़ाई छोड़कर जाने पर पकड़ लेती है पुलिस’
 उनके लिए बाल मजदूरी जैसे शब्द अपरिचित और अंजान सी दुनिया के शब्द हैं। जिनका उनके जीवन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। बस उनको पता है कि छोटे बच्चों का पढ़ाई छोड़कर कपास के खेतों पर काम करने के लिए गुजरात जाने पर पुलिस पकड़ लेती है। घर वालों को बड़ी परेशानी होती है। इसलिए पढ़ाई छोड़कर काम पर जाना अच्छी बात नहीं है। लेकिन अब तो गर्मी की छुट्टियां शुरु होने वाली हैं। मैं तो आठवीं भी पास कर रहा हूं।
अनिवार्य औऱ निःशुल्क शिक्षा के अधिकार कानून – 2009 के दायरे से भी बाहर जा रहा हूं जो कहता है कि आसपास के स्कूल में शिक्षा पूरी करना जरुरी है। कोई शुल्क नहीं देना है। उम्र के अनुसार ही कक्षा में बैठना है। तेरह के हो गए तो डायरेक्ट सातवीं में एडमीशन मिलेगा। मानो पढ़ाई नहीं, डीटीएच पर प्रसारित होने वाला दूरदर्शन का कार्यक्रम हो कि मुफ़्त में मिलना ही है।
शिक्षकों की तो कोई सुनता ही नहीं
इसके अलावा और भी बहुत सारी बातें कही गईं हैं, जो हकीकत में कम ही स्कूलों में नजर आती है। जैसे छात्र-शिक्षक अनुपात, भौतिक स्थिति में भवन और शौचालय की मौजूदगी, स्कूल में काम के घंटे, शिक्षक तो बेचारे कागज बनाने में लगे हैं, उनका भार तो और बढ़ गया है, जबसे शिक्षा का अधिकार कानून आया है। वे कहते-कहते थक गए हैं कि डाक का बोझा हटा लो, स्टॉफ दे दो, हम बेहतर पढ़ाई करवाकर दिखा देंगे।
लेकिन सरकार का कहना है कि नौकरी कर रहे हो तो किसी काम को मना मत को, वर्ना कारण बताओ नोटिस और अनचाही जगहों पर तबादले के लिए तैयार रहो। एमडीएम गले की फांस लगती है, पैसा तुमको देना है क्या, अरे सरकार दे रही है, खाओ-खिलाओ-खुश रहो काहें को नाराज होते-करते हो। ध्यान रखो, एमडीएम में चूहे वगैरह न टपके वर्ना नौकरी चली जाएगी, बच्चों को पढ़ाओगे नहीं तो कोई बात नहीं, लेकिन सारी औपचारिकताएं औऱ कार्यक्रम समय पक करवाते रहो, काम चलते रहना चाहिए।
‘स्कूलों में भयमुक्त माहौल, मगर डरते हैं शिक्षक’
गैर-शैक्षणिक काम करना कानूनन बंद है, लेकिन स्कूल से जुड़े आंकड़े तो देने ही पड़ेंगे। शिक्षा का अधिकार कानून यह बी कहता है कि जिनके पास शिक्षक होने की डिग्री यानी पात्रता है, वे ही पढ़ाने का काम कर सकते हैं। ताकि गुणवत्ता बनी रहे। इस बात में भी विरोधाभाष दिखाई पड़ता है कि जहां सबसे योग्य लोग हैं, वहीं का शैक्षिक स्तर इतना नीचे हैं कि रिपोर्ट बनाने वाले कहते नहीं अघाते कि आठवीं के बच्चों को पांचवीं के स्तर का भी ज्ञान नहीं है।
बाल केंद्रित शिक्षा और भयमुक्त वातावरण के दबाव से शिक्षकों में भय व्याप्त हो गया है कि बच्चों को डांटा-मारा तो खैर नहीं। काम करें, न करें कोई बात नहीं उनको प्यार से पुचकारकर और दुलारकर रखना है। बच्चों को पता चला तो वे भी खुश हुए कि चलो अब तो अपनी मौज है, काहे की पढ़ाई औऱ काहे की परीक्षा जब सबको पास ही होना है।
‘क्रमोन्नत होने और पास होने में कोई फर्क़ नहीं’
उनके लिए तो क्रमोन्नत होने और पास होने के बीच कोई फर्क नहीं है। जो स्कूल आया, वह भी पास। जो परीक्षाओं में दिखता है, वह भी पास। उनको भी क्या हो रहा है, कुछ समझ नहीं आता। अभिभावक अलग माथ कूट रहे हैं कि कैसा नियम है, पढ़ना जानों या नहीं, आठवीं पास का प्रमाण पत्र देकर विदा करने की बात करते हैं। शिक्षा के जानकार लोग कहते हैं कि एक-दो साल और पढ़ा सकते हैं, लेकिन अधिकारियों के आदेश के आगे किसकी चलती है।
जो आदेश आ गया, उसकी पालना होनी है। सरकारी स्कूल का बच्चा तो सरकार का है, अभिभावक का होता तो निजी स्कूल ले जाते। हमारे यहां दाखिला थोड़े करवाते, पिछले साल एक शिक्षक नें कहा था कि क्रीम तो निजी स्कूलों में चली जाती है। हमारे पास तो कचरा ही बचता है, उनकी पीड़ा को समझा जा सकता है।
‘जैसे-तैसे पढ़कर क्या होगा, जब मजदूरी ही करनी है’
लेकिन बच्चों को कचरा कहने वाली बात को बाल केंद्रित शिक्षा व्यस्था में अनसुना कैसे किया जा सकता है, इस कारण थोड़ी बहस तो होनी ही है। शिक्षा के अधिकार कानून का सामाजिक पहलू तो यही कहता है कि इसके कारण कई सारे लोगों के बीच आपसी खींचतान बढ़ गई है। नेताओं का दखल स्कूल में बढ़ गया है। पैसों की आवक बढ़ने से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। बहुत सारे संसाधन तो स्कूल में ऐसे आ रहे हैं कि पता नहीं चलता है कि उसका करना क्या है।
ऐसे हालत उत्पन्न हो रहे हैं कि शिक्षक और अभिभावक सब चकित हैं कि आने वाली पीढ़ी का क्या होगा, नई पीढ़ी सोच रही है कि जैसे-तैसे पढ़-लिखकर क्या होगा, जब मजदूरी ही करनी है। अगर ढंग की पढ़ाई होती तो कोई बात भी थी। आजकल तो जैसे-तैसे काम चल रहा है। संवेदनशील लोगों की तकलीफ ज्यादा है, उनको लगता है कि शिक्षक का काम करवाओ लेकिन प्रशासक मत बनाओ, हम शिक्षा देने का मौलिक काम करना चाहते हैं, हमारे अंदर शासक-प्रशासक बनने की कोई हसरत नहीं है।
‘आँकड़े सुधारने के लिए फ़ैसले ले रही है सरकार’
 तो कुछ स्वयंसिद्ध जानकारों का मानना है कि सरकार विश्व स्तर पर आंकड़े दुरुस्त करने के लिए वैश्विक दबाव में फैसले ले रही और गुणवत्ता की तरफ किसी का ध्यान नहीं है । कुछ उलझे और विदेशों से समस्याओं के आयात की पक्की सूचना के आधार पर पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं कि सब अमरीका की चाल है। हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा का तो बुरा हाल है, पूर्व-प्राथमिक शिक्षा तो निजी स्कूलों में हैं, सरकारी स्कूल की बालवाड़िया तो भगवान भरोसे चल रही हैं।
बस देश चल रहा लोग, पढ़ रहे हैं, पिछले दस सालों में साक्षारता की दर (2001-2011) 64.8 प्रतिशत से बढ़कर 74.04 हो गया। आंकड़ों में बेहतरी हो रही है, लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है और इसके सामाजिक पहलुओं के बारे में बहुत कुछ सामने आना बाकी हो, जो सतह के नीचे तैर रहा है। लोगों की जनभावनाओं की तरह…..। जिसकी नब्ज़ तक पहुंचाना बहुत आसान है और कठिन भी…।

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