सरकारी स्कूल अपने ‘स्वर्णिम अतीत’ की कहानी दोहरा पाएंगे?
भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को लेकर बहुत सारी कहानियां प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया में लिखी जा रही हैं। पिछले कुथ दिनों से उत्तर प्रदेश में शिक्षक के स्थानांतरण पर बच्चों और अभिभावकों की रोती हुई तस्वीरें लोगों का ध्यान खींच रहीं है। तो वहीं एक स्कूल में होमवर्क पूरा न कर पाने के कारण बच्ची की पिटाई वाली घटना पर भी लोग अपना आक्रोश जता रहे हैं।
मिड डे मील मामले में बड़ा फैसला
इसी हफ्ते बिहार में मिड डे मील में बच्चों की मौत के मामले में सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल को 17 साल के जेल की सजा की खबर भी आई है। साल 2013 में 16 जुलाई को हुई इस घटना में 23 बच्चों की मौत हो गई थी। इस घटना के कारण राष्ट्रीय स्तर पर योजना के क्रियान्वयन को लेकर सवाल उठे थे कि इसे कैसे बेहतर बनाया जा सकता है। उस समय जब मीडिया के कुछ साथियों के साथ मिड डे मील खाने के अनुभव बता रहा था तो उनको यक़ीन नहीं हो रहा था कि स्कूल में मिलने वाला खाना खाने लायक भी हो सकता है।
इस बात में संदेह नहीं है कि मिड डे मील की गुणवत्ता लंबे समय से सवालों के घेरे में रही हैं। लेकिन बहुत से स्कूलों में मिड डे मील का व्यवस्थित संचालन किया जा रहा है। यह भी एक सच्चाई है। उत्तर प्रदेश के कुछ स्कूलों में महीनों चावल बनने की घटना के बारे में भी शिक्षकों ने बताया। उन्होंने राजस्थान के एक सरकारी स्कूल में रोटी में घी लगाने वाली घटना पर आश्चर्य जताया कि अरे! ऐसा भी हो सकता है। यानि स्कूल से जुड़ी खबरें निरंतर मीडिया में आ रही हैं। लोगों के बीच चर्चा का कारण बन रही हैं।
ओलंपिक के दौरान स्कूलों का जिक्र
ओलंपिक खेलों के दौरान पदक न मिलने वाली स्थिति में सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे थे कि स्कूलों में मिड डे मील का स्तर सुधारना चाहिए। खेलों के ऊपर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। एक दिन बाद शिक्षक दिवस है बहुत से अखबार और पत्रिकाएं शिक्षकों के ऊपर विशेष कहानियों की योजना बना रहे होंगे। हो सकता है कि इस मौके पर राष्ट्रीय स्तर के कई आयोजन भी किए जाएं। मगर शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी योजनाओं और आयोजनों से प्राथमिक शिक्षा की ज़मीनी स्थिति पर बहुत ज्यादा फर्क़ नहीं पड़ता है।
शिक्षा के क्षेत्र में तारीफ करने वाली कोई परंपरा नहीं है। प्रोत्साहन वाली व्यवस्था का तो कई बार उल्टा असर होता है। ऐसे स्कूलों और शिक्षकों को पुरस्कार मिलता है जो सूचनाओं के प्रबंधन में माहिर होते हैं। मगर स्कूल में ऐसा कोई ख़ास काम नहीं हो रहा होता है, जिसके लिए उस स्कूल को ब्लॉक या ज़िला स्तर पर सम्मानित किया जाये। ऐसी स्थिति में साफ नज़र आता है कि प्राथमिकता शिक्षा के लिए अपने तथाकथित ‘स्वर्णिम अतीत’ को हासिल करना भी एक ‘दिवास्वपन’ है। क्योंकि अतीत में तो सबके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए आते थे।
आखिर में
नये दौर में समाज के संपन्न और प्रभावशाली तबकों ने इससे किनारा कर लिया है। इसलिए स्थिति में सुधारने को लेकर व्यवस्था में कोई गंभीरता नजर नहीं आती और अधिकारियों के ऊपर भी ऊपर से कोई दबाव नहीं है। सरकारी स्कूलों में काम करने वाले बहुत से शिक्षकों में स्व-प्रेरणा का स्तर काफी नीचे है। इस जड़ता को तोड़ने के लिए सिस्टम में एक बड़े बदलाव की दरकार है, मगर उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद स्थिति जस की तस बनी हुई है। सारे अधिकारियों के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूल अपनी पुरानी स्थिति में जैसे-तैसे सत्रारम्भ के बाद सत्रावसान की तरफ आगे बढ़ रहे हैं।
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