क्या बच्चे पढ़ाई के नाम पर डरते हैं?
मैंने स्कूल में बच्चों के बारे में क्या सीखा? इस सवाल का जवाब होगा, “बच्चे होते हैं अपनी मर्जी के मालिक जब चाहते हैं, बोलते हैं। जब मन होता है ख़ामोश हो जाते हैं।”
एक दिन क्लास की एक बच्ची ने दूसरी बच्ची के बारे में बताया, “यह ख़ामोश हो जाती है, जब पढ़ाई की बात होती है।” ऐसे ही लम्हों में मुझे बड़े शिद्दत से महसूस हुआ कि पढ़ाई बहुत डरावनी चीज़ है, अगर यह बोलने वाले बच्चों को ख़ामोश कर देती है।
बच्चों से बातचीत
मैंने एक बच्ची से उसका नाम पूछा। उसने बड़े आत्मविश्वास के साथ अपना नाम बताया। मगर इसके बाद ज्यों मैंने किताबों में लिखे अक्षरों की दुनिया के बारे में जानने की जिज्ञासा जताई, उसने मौन साध लिया। फिर उसने कुछ भी नहीं कहा।
मैंने शिक्षक से सवाल किया, “सर यह बोलती है।” जवाब मिला, “कभी-कभी।” उसके बारे में उसकी सहेली ने जो बात कही थी, वही सबसे पक्की बात थी। उसके पास ही सबसे पुख्ता जानकारी थी, अपने दोस्त के बारे में। बच्चों की यही सजगता बड़ों को भी हैरान करती है।
कौन कहता है कि बच्चों में व्यावहारिकता नहीं होती। वे चीज़ों को समझते नहीं। बच्चे तो सामने वाले का चेहरा देखकर भांप लेते हैं और उसके सवालों से ताड़ लेते हैं कि कोई जवाब देना है या नहीं। सामने वाले से कोई बात कहनी है या फिर मुँह मोड़ लेना है। ख़ामोश हो जाना है, बिना सवालों की परवाह किए हुए। शायद बच्चे जानते हैं कि सवाल पूछने वाला क्या करेगा? जब मेरी तरफ से उसे कोई जवाब ही नहीं मिलेगा। बड़ों को अनुत्तरित कर देने वाला बच्चों का यह अंदाज दिल को छू गया।
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