क्या यही है शिक्षा का अधिकार?

भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया। इसे पाँच साल पूरे हो गए हैं। इसके तहत 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है।
एक जिला शिक्षा अधिकारी शिक्षकों को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि शिक्षा के अधिकार के लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। आप भी पढ़िए।
1.स्कूल में बच्चों का दाख़िला करवा दो – नामांकन
2.बच्चों को भूल करके भी मारो-पीटो मत – भयमुक्त वातावरण
3.अगले साल अगली कक्षा में प्रमोट कर दो – क्रमोन्नत करना
4.बस इतना ध्यान रखो कि बीच में स्कूल से ग़ायब न हों ये बच्चे और स्कूल आते रहें – बच्चों का ठहराव सुनिश्चित करना
अपने संबोधन के आखिर में उन्होंने कहा, “एक बार आपने इन लक्ष्यों को हासिल कर लिया तो समझो बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिल गया और हमें अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति।”
वास्तविक स्थिति
उपरोक्त बातों के संदर्भ में अगर शिक्षा का अधिकार कानून-2009 को देखें तो बहुत सी बातें बिल्कुल सटीक हैं। जैसे बच्चों का नामांकन सुनिश्चित करना ताकि आठ करोड़ से ज्यादा बच्चे जो स्कूल से बाहर हैं उनको स्कूल से जोड़ा जा सके। उनको भी पढ़ने-लिखने में सक्षम बनाया जा सके। ऐसे बच्चों की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए विभिन्न संस्थाओं की तरफ से ब्रिज कोर्स या अन्य माध्यमों से उम्र के अनुसार कक्षा में प्रवेश देकर काम किया जा रहा है। मगर सारे बच्चों के लिए यह तरीका सही है।
स्कूल में शिक्षकों को इस बात का डर होता है कि अगर बड़े बच्चों को छोटी कक्षाओं में कुछ सीखने के लिए बैठाते हैं तो अधिकारी नाराज हो सकते हैं, अगर वे दौरे पर आते हैं। इस तरह के नजरिये के कारण भी हम ऐसे बच्चों के लिए कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं। ऊपर से स्थिति तब ज्यादा गंभीर नजर आती है जब सातवीं-आठवीं में पढ़ने वाले ऐसे बच्चे जो नियमित स्कूल आते हैं वे भी खुद को पढ़ना-लिखना सीखने में अन्य बच्चों की तुलना में काफी पीछे पाते हैं। यानि स्थितियां बड़े बदलाव की आश में बैठी हैं। शिक्षा के अधिकार की ऊपरी-ऊपरी बातों पर अमल से बात नहीं बनेगी।
उदाहरण के लिए जब स्कूल में शिक्षकों को नामांकन कम होने के कारण नोटिस मिलता है तो उनको समझ में आता है कि हमारी प्राथमिकता नामांकन है। इसलिए वे अगले साल सारा ध्यान बच्चों का नामांकन बढ़ाने पर लगा देते हैं। उनमें से कितने बच्चे रोजाना स्कूल आ रहे हैं और कितने बच्चे सीख रहे हैं, यह बात उनके ध्यान से हट सी जाती है। जबकि पूरी चर्चा बच्चों के सीखने और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने पर केंद्रित होनी चाहिए थी। मगर इस बात का जिक्र न अधिकारियों की बात में मिलता है और न शिक्षकों के रोजमर्रा के शब्दकोश में ऐसी बातें शामिल होती हैं। वे कभी-कभार कहते भी हैं कि हम तो सरकार के नौकर हैं, सरकार जो कहेगी वह करेंगे। हमारे लिए नौकरी बचाना पहली प्राथमिकता है, उसके लिए जो जरूरी है वो करेंगे। बाकी सारी बातें तो बाद में आती हैं।
भयमुक्त वातावरण
इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा काम हुआ है। अब स्कूल में बच्चों को खुल तौर पर पीटने वाली स्थितियां कभी-कभार ही दिखाई देती हैं। ऐसा होने पर सख़्त कार्रवाई होती है। इस कारण से शिक्षक भी बच्चों को पीटने से बचते हैं या डरते हैं। अभिभावक भी इस बात को समझते हैं और स्कूल में शिकायत के लिए पहुंच जाते हैं, इसका भी असर पड़ा है। मगर भयमुक्त माहौल बनाने के लिए नाम पर स्कूलों में जो हुआ है, वह काफी भयावह है।
यह एक सच्चाई है कि अब बच्चों को न परीक्षाओं का डर है। न पढ़ाई की चिंता है। न शिक्षक के कहे की परवाह ही बची है। क्योंकि उसे भी पता है कि शिक्षक कुछ कहेंगे नहीं। ऐसी स्थिति के निर्माण का श्रेय कक्षाओं में पढ़ाई की उपेक्षा है। जिन स्कूलों में शिक्षण कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। जहाँ कक्षा में बुनियादी अनुशासन को स्कूल की संस्कृति के तौर पर बढ़ावा दिया गया है, वहां आज भी कक्षा में शिक्षकों के लिए काम करना और बच्चों को पढ़ाना अन्य स्कूलों की अपेक्षा तुलनात्मक रूप से आसान है।
एक कक्षा से अगली कक्षा में क्रमोन्नत करने वाली व्यवस्था ने प्राथमिक स्तर पर शिक्षा व्यवस्था को पटरी से उतार दिया है, अगर ऐसा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि सच्चाई यही है। शिक्षकों के लिए वह काम सबसे ज्यादा जरूरी है जो दस्तावेज के रूप में दिखाई देता है।
कक्षाओं में होने वाले काम का मूल्यांकन परीक्षाओं के माध्यम से करने की कोशिश कुछ राज्यों में फिर से शुरू हुई है ताकि पढ़ाई के प्रति शिक्षकों को जवाबदेह बनाया जा सके। अब तो क्रमोन्नत करने वाली व्यवस्था पर भी पुनर्विचार हो रहा है। ताकि पढ़ाई के महत्व को फिर से स्थापित किया जा सके। शिक्षा का अधिकार क़ानून-2009 के अनुच्छेद-16 का एक खण्ड के रूप में नो डिटेंशन पॉलिसी को शामिल किया गया है। यह कहता है, “स्कूल में प्रवेश लेने वाले किसी भी बच्चे को किसी क्लास में फिर से नहीं रोका जाएगा या प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक स्कूल से बाहर नहीं निकाला जाएगा।”
ठहराव का सवाल

मेंहदी में मिलाने वाली पत्ती तोड़ते स्कूली बच्चे।
ठहराव के सवाल का समाधान बच्चों के स्कूल छोड़ने वाली स्थितियों और स्कूल आने से बचने वाली परिस्थितियों के बारे में विचार करके खोजा जा सकता है। अगर बच्चा किसी पारिवारिक मजबूरी के कारण स्कूल नहीं आ रहा है। या फिर घर के लोग उसे अन्य कारणों से स्कूल नहीं आने देते तो एक शिक्षक के हाथ में अभिभावक संपर्क करने और बच्चे को स्कूल भेजने का अनुरोध करने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं होता।
शिक्षा का अधिकार कानून में शिक्षकों को हर बात के लिए जवाबदेह माना जा रहा है, मगर अभिभावकों से अपेक्षाओं को स्पष्ट रूप में सामने नहीं रखा गया है। यह बात शिक्षक साथियों की तरफ से भी बार-बार सामने आती है।
ऐसे में एक शिक्षक के हाथ में क्या होता है? स्कूल में अच्छा माहौल बनाना। असेंबली से लेकर स्कूल की छुट्टी तक बच्चों का पूरा दिन अच्छे से बीते। वे रोज़ाना स्कूल में हर कालांश में अच्छी पढ़ाई का आनंद लें। उनको कक्षा में भागीदारी का मौका मिले। हर बच्चे के सीखने पर विशेष ध्यान दिया जाए। जो बच्चे स्कूल नहीं आ रहे हैं, उनके अभिभावकों से संपर्क किया जाए और बाकी बच्चों से उनको अपने साथ स्कूल लाने के लिए कहा जाए। समुदाय के साथ होने वाली बैठकों में स्कूल की प्रगति से उनको अवगत कराया जाए और हर बच्चे को स्कूल भेजने और घर पर पढ़ने के लिए बैठाने को प्रेरित किया जाए। ऐसे प्रयासों से स्थितियों को बेहतर बनाने का रास्ता खोजा जा सकता है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का सवाल आज भी प्रासंगिक है
आसान शब्दों में, “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मतलब ऐसी शिक्षा है जो हर बच्चे के काम आये। इसके साथ ही हर बच्चे की क्षमताओं के संपूर्ण विकास में समान रूप से उपयोगी हो।”

सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे अपना लिखा हुआ दिखाते हुए।
यानि ऐसी शिक्षा हर बच्चे की वैयक्तिक विभिन्नता का ध्यान रखने वाली होगी। हर बच्चे के सीखने का तरीका अलग-अलग होता है। ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हर बच्चे के सीखने के तरीकों को अपने में समाहित करने वाली होगी ताकि क्लास में कोई भी बच्चा सीखने के पर्याप्त अवसर से वंचित न रह जाये। इसके साथ ही हर बच्चे को विभिन्न गतिविधियों, खेल और प्रोजेक्ट वर्क के माध्यम से उनको सीखने का मौका देने वाली भी होगी।
ऐसी शिक्षा में चीज़ों को समझने (अर्थ निर्माण) के ऊपर विशेष फोकस होगा। बच्चों को चर्चाओं के माध्यम से अपनी बात कहने और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी का मौका मिलेगा। इस नज़रिये से संचालित होने वाली कक्षाओं में गतिविधियों और विषयवस्तु में एक विविधता होगी। शिक्षक के नज़रिये में लचीलापन होगा। वे हर बच्चे को साथ-साथ सीखने के अतिरिक्त खुद के प्रयास से भी सीखने का पर्याप्त मौका देंगे ताकि बच्चों का आत्मविश्वास बढ़े।
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