रविकांतः नोट्स बनवाने से जुड़ी तंगनजरी पर एक नजर
रविकांत शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न संस्थाओं में बतौर सलाहकार अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। शिक्षा के जुड़े विभिन्न मुद्दों पर सतत लेखन, अध्ययन और शोध उनकी रुचि के क्षेत्र हैं। परीक्षाओं के लिए बनने वाले नोट्स और उनकी प्रासंगिकता के विश्लेषण के साथ ही साथ आप इस काम को बेहतर ढंग से करने के विकल्प भी प्रस्तुत कर रहे हैं।
मेरा भतीजा इन दिनों दसवीं के बोर्ड इम्तिहानों की तैयारी कर रहा है. उस वजह से उसका व उसके दोस्तों को खेलना आदि बंद है. स्कूल का समय भी करीब दो घंटे बढ़ा दिया गया है. इसके बावजूद उसके पास रोज कोई न कोई गृहकार्य होता है जो उसे घर पर आकर करना ही होता है. एक दिन अगर वह किसी वजह से स्कूल न जा पाए तो अपने दोस्तों की कापियों से 5 से 10 पन्ने उतारने की सजा भुगतनी पड़ती है, सो अलग से.
मैंने उससे पूछा कि तुम्हारे अध्यापक आखिर इतनी देर तक करवाते क्या हैं? उसने बताया कि नोट्स बनवाते हैं. मैंने पूछा कि नोट्स कैसे बनवाते हैं ? उसने बताया कि वे महत्त्वपूर्ण हिस्सों पर निशान लगवा देते हैं फिर हम उन्हें अपनी कापी में उतार लेते हैं. मैंने उस वक्त इस सवाल को नहीं छेड़ा कि क्या किताब में से महत्त्वपूर्ण बातों की कापी में नकल कर लेना ही नोट्स बनाना होता है. क्या अपने शब्दों में अपनी समझ को लिख कर व्यक्त कर पाना इतना गैर जरूरी व गैर महत्त्वपूर्ण काम होता है. इस पर मैंने उससे पूछा कि वे तुम्हें नोट्स बनाना क्यों नहीं सिखाते ?
नोट्स लेना कैसे सीखोगे?
इस पर भतीजे का जवाब था कि सभी बच्चे नोट्स अपने आप नहीं बना सकते, कुछ तो पढ़ कर समझ भी नहीं पाते, इसीलिए अध्यापक नोट्स बनवाते हैं ताकि सभी के नोट्स बन जाएं. मैंने इस पर सवाल किया कि अगर अध्यापक तुम्हें नोट्स बनाना नहीं सिखाएंगे तो तुम किसी चीज को पढ़ कर उसके नोट्स लेना कैसे सीखोगे और कॉलेज में जाकर कैसे पढ़ोगे ? अचानक मुझे याद आया कि हमारे समय में ‘अच्छे’ माने जाने वाले प्राध्यापक तक अपने सड़ी गली या अच्छी खासी नोटबुक में से सुना सुना कर हमें अपने नोट्स की नकल उतरावाया करते थे।
जिन्हें उन्होंने अपने कॉलेज के जमाने में अपने प्राध्यापकों की नोटबुक से सुन कर लिखा होगा. खैर यह बात मैंने भतीजे को नहीं बताई. भतीजा बोला कि हां अध्यापक भी मानते हैं कि यह तरीका ठीक नहीं है लेकिन वे क्या करें,उनको प्रधानाचार्य की तरफ से ऐसा ही करने का आदेश है. अब ऊपर से आए आदेश को टालने की हिमाकत देश का बड़े से बड़ा बाबूनुमा अफसर तक नहीं कर सकता तो भला एक अदने से अध्यापक की क्या बिसात. वह भी अपनी अक्ल को खूंटी पर टांग कर आंखें मूंदे आदेशों की तामील में जुटा रहता है.
आप देख सकते हैं कि बातचीत नोट्स बनवाने के तरीके से लेकर नोट्स बनवाने के कारणों तक पहुंची और अंत में एक ऊपर से आए आदेश की मजबूरी पर जाकर टिक गई. आप पहचान ही गए होंगे कि यह आदेश बोर्ड इम्तिहानों के भूत की वजह से जारी किया गया होगा जिसका साया क्या अध्यापक क्या प्रधानाचार्य और क्या अभिभावक सब पर पड़ा रहता है. इस की खासियत यह है कि इसके सर पर चढ़ जाने के बाद शिक्षा तंत्र और उसके शिकंजे में जकड़े व्यक्तियों की दूर की नजर कमजोर हो जाती है, जिससे इन्हें शिक्षा व सीखने के व्यापक लक्ष्य दिखाई देने बंद हो जाते हैं और सिर्फ पास ही पास की चीजें दिखाई देती है. तो नजदीक की नजर से फिलहाल इन सभी को बोर्ड इम्तिहान में ज्यादा से ज्यादा अंक लाकर ऊंची से ऊंची श्रेणी हासिल करने का मकसद ही नजर आता है.
इस मकसद को हासिल करने की कोशिश में नोट्स बनवाने के मुखौटे तले स्कूली किताबों के पहले से छंटे हुए हिस्सों की नकल उतरवाने व उसे रटवाने के काम में बच्चों को घाणी के बळद की तरह जोत दिया जाता है और वह आंख पर पट्टी बांधे घर और स्कूल में इस काम में जुता रहता है. सभी खुश, देखो हमारे बच्चों, अभिभावकों व शिक्षा तंत्र में अध्यापकों से लेकर सबसे बड़े अफसरों तक ने मेहनत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है. यह बात दूसरी है कि इसके बावजूद बच्चों की बड़ी तादाद हर बोर्ड की परीक्षा के बाद उसी कक्षा में रोक कर रखी जाती है और बड़ी खामोशी के साथ हौले हौले शिक्षा तंत्र की चारदीवारी से बाहर धकेल दी जाती है.
समझने की बजाय रटने पर है जोर
बहुत साफ है हमारे समाज में नोट्स बनाने की अच्छी शैक्षिक विधा के नाम का इस्तेमाल करके नकल करवाने का बेफालतू का काम आसानी से करवाया जा सकता है और करवाया जा रहा है. लेकिन इस प्रवृति में नोट्स के मुखौटे के पीछे कई तरह के संदेश भी छुपे हुए हैं. पहला, पढ़़ कर समझने का मतलब उसे अपने शब्दों में कह पाना या उसका सारांश कर पाना नहीं बल्कि उसी के टुकड़ों को दूसरों के सामने वैसे का वैसा पेश कर पाना है. उन टुकड़ों के आपसी संबंधों को देखने समझने की कोई जरूरत नहीं. दूसरा, लिखित सामग्री को समझने में अपनी अक्ल का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं वह तो ज्यादातर कंप्यूटर की मदद से बेहद आसान हो चुकी काटो-चेपो की पुरातन पद्धति की मदद से स्कूली किताबें बनाने वालों ने कर ही रखी है.
तीसरा, स्कूली किताबों में से महत्त्वपूर्ण हिस्सों को छांटने का हक दबंग किस्म के शिक्षा तंत्र व उसके नुमाइंदों को है, बच्चों को नहीं. चौथा, तंत्र शिक्षा सभी बच्चों में लिखित सामग्री को समझ कर नोट्स बनाने की काबिलियत विकसित कर पाने में बुरी तरह से नाकाम रहा है लेकिन समरथ को नहीं दोष गुसाई की तर्ज पर इसमें दोष उन बच्चों का है जो दसवीं में आ गए लेकिन उस कक्षा की किताबों को पढ़ कर समझ नहीं पाते. उन बच्चों को पढ़ कर समझना सिखाने की तंत्र की जिम्मेदारी ना तो पिछली कक्षाओं में थी ना इस कक्षा में है आगे कभी होने की उम्मीद पीपीपी की पुंपाड़ी बजाते हुए शिक्षा को निजी ठेकों पर उठाए जाने की वजह से कम ही नजर आती है.
‘इम्तिहानी भूतों की ताकत काफी बढ़ चुकी है’
सुना है, बच्चों के भूत, वर्तमान, व भविष्य का खून पी पी कर इम्तिहानी भूतों की ताकत काफी बढ़ चुकी है. वे राजस्थान में आठवीं कक्षा के बच्चों के सर पर तो दबे छुपे तरीके से फिर से सवार हो ही चुके हैं अब पांचवीं और तीसरी के बच्चों व उनके शिक्षा तंत्र पर भी सवार होने की तैयारी में जुटे हैं. लेकिन बात सिर्फ बोर्ड के इम्तिहान या किसी आम इम्तिहान की ही नहीं है. जब इम्तिहान नहीं होते तब भी स्कूलों या महाविद्यालयों में भी ज्यादातर इस बात की जरूरत आम तौर पर नहीं समझी जाती कि शिक्षार्थी खुद नोट्स बनाना सीखें. पढ़ाने का सबसे आम तरीका यह होता है कि पहले पाठ पढ़ाया जाए व जरूरत पड़ने पर उसकी व्याख्या करके या उससे जुड़ी समस्याओं को हल करके समझा दिया जाए.
जैसे जैसे कक्षाओं का दर्जा ऊपर चढ़ता जाता है वैसे वैसे अध्यापिकाएं यह सिखाना शुरू कर देती है कि किसी सवाल का जवाब पाठ में कहाँ से कहाँ तक दिया गया है. बच्चों का जिम्मा नकल करके उसे रट लेने भर का होता है. कॉलेज में आने के बाद अध्यापिकाएं अपने नोट्स लिखवा देती हैं तथा ‘तेज तर्रार’ माने जाने वाले शिक्षार्थी कक्षाओं में अपना वक्त बरबाद न करके अपने अग्रजों या साथियों के नोट्स की फोटोकापी से काम चला लेते हैं.
इसका नतीजा यह होता है कि जब कई युवा स्कूलों या कॉलेजों में अध्यापन शुरू करते हैं तो वे फिर से नोट्स की एक नकल उतारू पीढ़ी को तैयार करने में जुट जाते हैं. और इस तरह यह दुष्चक्र अनथक रूप से जारी रहता है. इस दुष्चक्र को ठीक से समझने व इससे बाहर निकलने के रास्तों का शिनाख्त करने के लिए दो तीन सवालों पर थोड़ा धैर्य से विचार करने की जरूरत है.
पहला, आखिर इंसानों को इस नोट्स नामक बला को सिर चढ़ाने की जरूरत ही क्या है ?
दूसरा, अगर यह जरूरी है तो नोट्स की बुनावट कैसी होनी चाहिए?
तीसरा, नोट्स कैसे बनाए जाने चाहिए ?
सवालों के जवाब
पहले सवाल का सीधा सा जवाब यह है कि चाहे कोई इंसान पढ़ा लिखा हो या बिना पढ़ा लिखा उसका काम नोट्स बनाए बगैर चलता नहीं है. और इस काम में हमारी मदद के लिए भाषा नामक अद्भुत औजार तो हमारे पास है ही. कोई भी बच्चा जब अपने साथ घटी कोई घटना या अनुभव किसी दूसरे को सुनाता है तब वह क्या करता है ? उस वक्त वह अनुभव के समय अपने दिमाग में दर्ज किए गए बिंदुओं, जानकारियों आदि की मदद से उस अनुभव को शब्दों में पिरो कर दूसरों के सामने पेश करता है. उसमें भी वह धीरे धीरे यह भी सीखता है कि घटना या अनुभव को बताते समय किस जानकारी को चुनना है व किसे छोड़ देना है. या किसे सुनाना है और किसे नहीं सुनाना है. धीरे धीरे वह यह भी कर सकता है कि किसे सुनाते वक्त किस हिस्से या जानकारी को शामिल कर देना है और किसे छोड़ देना है.
जिस घटना या अनुभव से हम खुद गुजरते हैं उसके हिस्से व उनसे जुड़ी जानकारियों को दिमाग में दर्ज करना व वक्त पड़ने पर उनका इस्तेमाल कर पाना हमारे लिए थोड़ा आसान इसलिए हो जाता है क्योंकि हमारे पास इसे सीखने के लिए ढेरों मौके सहज ही उपलब्ध रहते हैं. फिर उसमें हमारी मदद करने के लिए भाषा के साथ साथ हाव-भाव, आवाज में उतार चढ़ाव जैसे अहम संप्रेषक भी मौजूद रहते हैं.
लेकिन जैसे ही हमारा पाला पढ़ने लिखने यानी लिपि की दुनिया से पड़ता है तो यह काम थोड़ा और मुश्किल हो जाता है. इसकी एक वजह तो मौखिक व लिखित भाषा में फर्क है ही, लेकिन इसके साथ ही मौखिक भाषा के जरिए पढ़ने समझने व लिखने की मशक्कत के साथ साथ घरेलू व स्कूली भाषाओं के बीच चौड़ी व गहरी खाइयों की मौजूदगी भी है. इस वजह से भी मौखिक भाषाई दुनिया में नोट्स बनाने की काबिलियत को लिखित भाषा के संदर्भ में हस्तांतरित कर पाना भी एक पेचीदा काम बन जाता है, जिसका आसान हल हमने नोट्स के नाम पर नकल के रूप में निकाला हुआ है.
नोट्स की जरूरत
फिर लिखित भाषा की दुनिया में नोट्स बनाने का काम भी ज्यादा पेचीदा व व्यापक हो जाता है. अपनी ही या किसी दूसरी भाषा, संस्कृति, समाज देश प्रदेश की घटनाएं/जानकारी भाषा की अलग अलग विधाओं जैसे कहानी, नाटक, कविता, वर्णन आदि में अलग अलग माध्यमों जैसे किताबों, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि के जरिए हमारे पास पहुंचती है. हमें उन्हें लिपि के उलझे पुलझे रास्तों से जूझ कर न सिर्फ उन्हें समझना होता है, बल्कि आज या आने वाले किसी वक्त में उन्हें इस्तेमाल करने के लिए याद भी रखना होता है. फिर लिखित में आते ही उनकी मात्रा भी दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ती जाती है. इसके साथ ही लिखित भाषा की मौजूदगी से समाज भी पेचीदा होते चले जाते हैं.
फिर हमारे दिमाग की बुनावट कुछ ऐसी है कि चीजों को रिकार्ड करके थोड़े वक्त के लिए भी याद रख सकता है और व लंबे वक्त के लिए भी. जिन चीजों को वह लंबे वक्त के लिए याद रखता है उन्हें वह शब्दश: या जैसा देखा है वैसा याद नहीं रखता. वैसे भी अगर तीन घंटे के अनुभव को दोबारा याद करने में तीन घंटे लगे तो धीरे धीरे हमारे पास पुराने अनुभवों को याद करने में पूरा वक्त बरबाद हो जाया करेगा और नए अनुभवों के लिए वक्त ही नहीं बचेगा. इसलिए दिमाग अनुभवों को भाषा की मदद से इस तरह जमाता है कि उसकी प्रमुख बातें या खासियतें उसमें शामिल हो जाएं, जिन्हें थोड़े में याद रखा जा सके और जिन्हें जरूरत पड़ने पर फैलाया भी जा सके. वह उन पर किसी तरह का लेबल या चिप्पी भी लगाता है ताकि जरूरत पड़ने पर सही जानकारी या अनुभव को पहचान कर उस तक तुरंत पहुंचा जा सके. उसे लंबे वक्त तक याद भी रखा जा सके और जरूरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल भी किया जा सके. अगर याद रखी हुई चीज को जरूरत पड़ने पर काम में नहीं लिया जा सके तो उसका फायदा ही क्या.
कैसे बनाए अच्छा नोट्स
तो फिर सवाल यह उठता है कि नोट्स की बुनावट कैसी होनी चाहिए? और उन्हें कैसे बनाया जाना चाहिए ? अब तक यह तो साफ हो चुका होगा कि अच्छे नोट्स की पहली शर्त उनका संक्षिप्त होना है. चाहे आप सुन कर बनाएं या पढ़ कर, अगर आप लंबे लंबे वाक्य उतारते हैं या लंबी लंबी बातें याद रखते हैं उससे आप उसका सार ग्रहण नहीं कर सकते. किसी भी लिखी या सुनी हुई बात का सार खोजने का एक तरीका उस बात के केन्द्रीय विचार को खोजना है. यानी वह बात किसी प्रमुख विचार के इर्द गिर्द बुनी जा रही है. अगर आप केन्द्रीय विचार को पहचान लेते हैं तो आपके पास दूसरा काम यह होता है कि आप उससे जुड़े दूसरे विचारों को भी पहचाने जो उस केन्द्रीय विचार को सहारा दे कर मजबूत बनाते हैं.
यानी आप किसी लेख या बात के केन्द्रीय विचार और उससे जुडे विचारों को पहचानें और उनके आपसी संबंधों को भी पहचानें. इससे आप उसे पूरी बात या लेख में आए प्रमुख विचारों व उनके मददगार विचारों का एक ढांचा बना सकते हैं. अब आपने प्रमुख विचार व उसकी मदद करने वाले विचारों के आपसी संबंधों को जोड़ कर एक ढांचा बना लिया तो सवाल यह उठता है कि उसे रखेंगे कहां. यहां पर आकर आपको इस ढांचे का संबंध अपने पास पहले से मौजूद ज्ञान के साथ जोड़ कर देखना पड़ता है, ताकि इसे अपने पुराने ज्ञान से जोड़ते हुए सही जगह पर रखा जा सके. यह सब करते हुए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं आप वक्ता या लेखक की भाषा को रटने या लिखने के फेर में न पड़ जाएं. क्योंकि एक बार इस फंदे में उलझते ही आपस समझने के काम को बाद के लिए छोड़ कर रटने या नकल उतारने के निरर्थक काम को करने लग जाएंगे और आपमें व रट्टू तोते में समझ के स्तर पर खास फर्क नहीं बचेगा.
यहां तक की बात से लग रहा होगा कि क्या प्रमुख व मददगार विचारों का ढांचा बना लेना ही काफी है. क्योंकि अपनी बात कहने वाला वक्ता या लेखक अपने विचारों के समर्थन में जानकारियां व उदाहरण भी देता है. फिर से एक बार आसान रास्ता उनकी नकल उतारना या रटना है लेकिन अपनी समझ को बेहतर तरीके से गढ़ने का मुश्किल परंतु उपयोगी रास्ता उन उदाहरणों की मदद से खुद उदाहरणों को गढ़ना और अपनी पुरानी जानकारियों में से उपयुक्त जानकारियों को वहां दर्ज करना है. इससे एक फायदा यह भी होता है कि हमें उन विचारों से जुड़े उदाहरणों को गढ़ने में जो जद्दोजहद करनी पड़ती है उससे वे विचार व उनसे जुड़े कई पहलु हमारे सामने ज्यादा साफ होते हैं. कई बार नए सवाल भी खड़े होते हैं जिनके जवाब तलाशने के फेर में हमारी समझ और बेहतर होती है. यहां पर एक मौका श्रोता या पाठक के पास यह भी होता है कि वह दिए गए उदाहरणों की जांच करके उनसे जुड़े विचारों की जांच भी कर सकता है और यह पता लगा सकता है कि क्या उदाहरण का मेल उदाहरणों के साथ है या वे बेमेल हैं. यानी नोट्स बनाना वक्ता या लेखक के विचारों की व्यवस्थित तौर पर आलोचनात्मक तरीके से जांच करने का मौका भी उपलब्ध करवाता है.
अब तक हमने किसी वैचारिक लेख या वक्तव्य के नोट्स की बात की है. किसी जानकारीपरक वक्तव्य या लेख के नोट्स बनाने में भी इसी खाके को थोड़े फेरबदल करके काम में ले सकते हैं. उसमें प्रमुख जानकारी व उससे जुड़ी जानकारियों को पहचान कर व उनके आपसी संबंधों की मदद से एक ढांचा बनाया जा सकता है. इसी तरह से किसी कहानी में उसमें आए प्रमुख पात्रों, प्रमुख घटनाओं व उनके बीच के क्रम को पहचान कर उसके नोट्स बनाए जा सकते हैं. ऐसे ही अलग अलग विधाओं में इस नोट्स लेने के इस ढांचे को उस विधा के मुताबिक फेरबदल करके इस्तेमाल किया जा सकता है.
नोट्स बनाने की तैयारी कैसे करें?
ऊपर की बातचीत में नोट्स की बुनावट पर विचार करते करते उन पर महारत हासिल करने का एक खाका भी साथ साथ उभरने लगता है. जैसे तैरना सीखने के लिए पानी में उतर कर तैरना जरूरी होता है, और सीखते वक्त डुबकियां खाना, मुंह नाक में पानी भर आने की वजह से दम घुटने का अहसास होता है, लेकिन इसी के साथ धीरे धीरे इनसे उबर कर तैरने में माहिर होने की तरफ बढ़ते कदमों से किसी एक काम पर थोड़ी पकड़ बनने पर खुशी का अहसास होता है. उसी तरह से नोट्स बनाने के लिए बार बार सुनी या पढ़ी हुई चीजों का सार अपने शब्दों में बोलना या लिखना, उनके आपसी संबंधों को पहचानना व दर्ज करना, अपने नोट्सों को दूसरों के साथ सांझा करके उनकी खामियों व खूबियों को पहचानना, प्रमुख विचारों/घटनाओं/जानकारियों आदि को निरर्थक या अप्रासंगिक विचारों/घटनाओं/जानकारियों से अलग करना व उन्हें साफ सुथरी भाषा व ढांचों में व्यक्त करना कर करके, आपस में सांझा करके ही सीखा जा सकता है.
आखिर में नोट्स बनाने वाले कबीरदास जी के इस दोहे में साधु की जगह शिक्षार्थी रख कर पढ़ सकते हैं.
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय
सार सार का गहि रहे, थोथा देय उड़ाय.
अगर हम साधु की तरह ही लेखन या वक्तव्यों के सार को पहचान पाएं, उसे थोथे से अलग कर पाएं, उसे अपने शब्दों में व्यक्त कर पाएं, जरूरत पड़ने पर उसे फैला पाएं, उस पर आलोचनात्मक ढंग से विचार कर पाएं, अपने पास पहले से मौजूद ज्ञान व समझ के साथ जोड़ कर देख पाएं तो वे हमारे लिए ज्यादा टिकाऊ पर उपयोगी साबित होंगे.
(लेखक परिचयः रविकांत शैक्षिक सलाहकार के तौर पर विभिन्न संस्थाओं व शिक्षकों के साथ काम कर रहे हैं। शिक्षण सामग्री, पाठ्यपुस्तकें, प्रशिक्षण संदर्शिकाएँ आदि का निर्माण, शैक्षिक शोध तथा अनुवाद कार्य में सक्रिय हैं। गणित शिक्षण में खास रुचि।)
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