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बोर्ड परीक्षाओं का डर दिखाकर हम भविष्य के लिए कैसे स्टूडेंट्स तैयार कर रहे हैं?

आठवीं कक्षा के बच्चों के साथ कक्षा-कक्ष में हिन्दी भाषा के कालांश पर बात करते हुए पाठ्यपुस्तक के एक बेहद आसान से सवाल पर निगाह पड़ी कि आपकी पसंदीदा मिठाई क्या है? इस सवाल का जवाब किताब की गाइड में रसगुल्ला लिखा हुआ था। इस सवाल को पूछने पर लगभग सभी बच्चों के जवाब एक जैसे आए।

एक जैसे जवाबों का आना या फिर सवाल पूछने पर ख़ामोशी छा जाना फ्रेरे के शब्दों में कहीं न कहीं ख़ामोशी की संस्कृति को ही प्रतिध्वनित करता है। लेकिन ख़ामोशी से ज्यादा ख़तरनाक ट्रेंड एक जैसे जवाब रटकर परीक्षा के लिए होने वाली तैयारी का है। बोर्ड परीक्षाओं का तनाव बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों पर भी होता है क्योंकि इसी रिजल्ट के ऊपर विद्यालय की विश्वसनीयता, शिक्षक की पढ़ाई और बच्चों के अभिभावकों का भरोसा टिका होता है। बच्चों को यह कैसे प्रभावित करता है, इस लेख में हम इसी बात को समझने की कोशिश करते हैं।

ऑनलाइन पढ़ाई और नोट्स की शेयरिंग

12वीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से अपनी पढ़ाई के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश कर रही है।ऑनलाइन कक्षाओं के बाद शिक्षक बच्चों को ह्वाट्सऐप के माध्यम से नोट्स भेजते हैं। इस नोट्स को बच्चे अपनी कॉपी में उतारते हैं और बच्चों की कॉपी शिक्षक ऑनलाइन कक्षाओं में चेक करते हैं और इसके साथ ही साथ स्कूल खुलने की स्थिति में कॉपी को स्कूल में लाकर दिखाने के लिए काम करते हैं।

अगर हम माध्यमिक कक्षाओं की पढ़ाई के महत्व को देखें तो यह वह अवस्था होती है जब किसी छात्र या छात्रा का सबसे तेज़ बौद्धिक विकास हो रहा होता है। पाठ्यक्रम चुनौतीपूर्ण होता है और इसके साथ ही साथ सीमित समय में पाठ्यक्रम को पूरा करने व उसे दोहराने का दबाव भी लगातार शिक्षकों व परिवार के लोगों की तरफ से बना रहता है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी व उनका दबाव 12वीं कक्षा पास करने की दहलीज़ पर खड़ा होता है। 12वीं में मिलने नंबरों पर ही आगे किसी अच्छे कॉलेज में दाख़िला और विभिन्न कोर्सेज़ में प्रवेश की  संभावनाएं टिकी होती हैं। ऐसे में 12वीं की पढ़ाई और बोर्ड परीक्षा के दबाव को कम करके नहीं देखा जा सकता है। लेकिन सबसे अहम सवाल है कि बोर्ड परीक्षाओं के ढांचे में हम किसी तरह के स्टूडेंट्स भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं।

‘कड़ी मेहनत’ करते स्टूडेंट्स

पहली बात कि किसी विषय को रटने और उसके जवाब को फिर से कॉपी में उतारने व उसे बार-बार बोलकर याद करने की मेहनत को प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमारे के शब्दों में ‘कड़ी मेहनत’ करना कहा जा सकता है। इस कड़ी मेहनत का अंतिम परिणाम परीक्षा परिणाम के बाद मिलता है। इस प्रक्रिया में आनंद के लिए, खोजबीन के लिए और साहित्य व अन्य संबंधित विधाओं से गहरे जुड़ाव की गुंजाइश बेहद सीमित होती है।

भले ही पाठ्यक्रम में अपने तौर के जाने-माने लेखक मनोहर श्याम जोशी का कोई पाठ लगा हो अपने दौर की कहानी कहता हो, लेकिन नये दौर से उसका रिश्ता और लेखक से बच्चों का परिचय ज्यादा मजबूती के साथ नहीं हो पाता है। क्योंकि बच्चों के ऊपर ‘कड़ी मेहनत’ का दबाव होता है। वे आज्ञाकारी बच्चे की भाँति जैसा निर्देश दिया जाता है वैसा करते हैं। क्योंकि अगर उनकी उतारी कॉपी में कोई बदलाव होता है तो शिक्षक उसको अपने आदेश की अवहेलना के रूप में देखते हैं। इससे उनको लगता है कि उनकी मेहनत पर बच्चे पानी फेर रहे हैं और ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहे हैं।

‘रेडीमेड विचारों’ का उपभोक्ता बनाती पढ़ाई

शिक्षक के नोट्स या किसी गाइडबुक से केवल सवालों का जवाब उतारने और रटने की प्रक्रिया बच्चों को रेडीमेड विचारों का उपभोक्ता बना रही है। ऐसे में उनकी वाक्य संरचना पर समझ और अपनी किसी बात को लिखकर या बोलकर बताने की भाषायी क्षमता का विकास नहीं हो रहा है। वे सिर्फ रटी हुए वाक्यों और वाक्यांशों के माध्यम से अपना काम चला ले रहे हैं। कई बार तो किताब से जिस पाठ के सवालों का जवाब लिखा जा रहा है उसे पढ़ने का अवसर भी नहीं मिलता।

पढ़ें: स्कूल और कॉलेज में किताबों की जगह गाइड्स क्यों ले रही हैं?

ऐसी स्थिति में आठवीं कक्षा के बच्चों के साथ संवाद वाली प्रक्रिया में मिले तथ्यों का पुनः प्रकटीकरण होता है। आपकी पसंदीदा मिठाई क्या है? आपका रोल मॉडल कौन है? आप भारत के किस हिस्से में पर्यटन के लिए जाना चाहते हैं, इसका जवाब वहीं होता है जो गाइड्स या पासबुक में लिखा होता है। या फिर शिक्षक के नोट्स में दर्ज़ होता है। ऐसी पढ़ाई नंबरों की गारंटी वाली हो सकती है, जिससे बच्चे और अभिभावक दोनों संतुष्ट हो सकते हैं।

नंबरों को स्टूडेंट्स की क्षमता का आधार मानने के नुकसान क्या हैं?

नंबरों के आधार पर बच्चों की योग्यता का आकलन करने वाले संस्थान व समाज के लोग भी इसी के आधार पर अपनी राय बनाते और बिगाड़ते हैं। लेकिन जब बात छात्र-छात्राओं में मौलिक चिंतन के विकास की योग्यता, अपने शब्दों में किसी सवाल का जवाब देने की आती है या फिर ग्रेजुएशन के दौरान स्वतंत्र रूप से पढ़ने-समझने, अपनी राय बनाने और कक्षा-कक्ष में होने वाली चर्चा में सवालों के माध्यम से भागीदारी की आती है तो निश्चित रूप से ऐसे छात्र या तो खुद को ठगा हुआ महसूस करते होंगे।

इन छात्रों को पढ़ाते हुए शिक्षक असहाय महूसस करते होंगे कि हम क्या करें? इस तरह के कौशल के विकास की जिम्मेदारी तो 12वीं तक पढ़ाने वाले शिक्षकों की थी। ख़ैर पूर्व के शिक्षकों पर जिम्मेदारी डालने का यह तथ्य न तो नया है और न ही यह बात आपके लिए बिल्कुल अनोखी है। लेकिन फिर भी ज़मीनी सच्चाई का सशक्त ढांचा जो हमारी शिक्षा व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा है और अपना पोषण पा रहा है, उसे समझने में मदद तो जरूरत करता है।

भाषा शिक्षण के प्रति सोच में बदलाव है जरूरी

भाषा शिक्षण के प्रति जो लापरवाही इस स्तर पर बरती जाती है उसका छात्रों के विस्तार में पढ़ने की आदत और मूल पाठ के प्रति एक लगाव विकसित होने जैसी संभावनाएं काफी सीमित हो जाती है। इसलिए अगर आपके भी परिवार में बोर्ड की परीक्षाओं की तैयारी करने वाले बच्चे हैं तो उनके साथ बातचीत करें और समझने की कोशिश करें कि उनकी कक्षाओं में शिक्षण की प्रक्रिया कैसी चल रही है, कौन सी क्षमताओं का वास्तव में विकास हो रहा है और कौन से अवसर हैं जो बच्चों की पहुंच से दूर हो रहे हैं। ऐसा करते समय जरूरत ध्यान रखें कि यह एक दिन में एक महीने में हल होने वाली समस्या नहीं है। लेकिन थोड़ा सा सजग होना आपको बच्चों को अपने स्वभाव जिज्ञासा, सीखने की ललक और सवाल करने की संस्कृति व स्वतंत्र चिंतन की योग्यता विकसित करने में जरूरत मदद कर सकता है।

इसके साथ ही साथ ग्रेजुएशन स्तर पर भाषाओं के शिक्षण को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में शामिल करने का प्रयास तो अच्छा है। लेकिन यह प्रयास तभी कारगर है जब स्टूडेंट्स को इस पेपर में पास होने भर का अंक लाने की बजाय सही अर्थों में भाषा में अपनी अभिव्यक्ति के सशक्त बनाने और ग्रेजुएशन के अनरूप अपनी क्षमताओं को विकसित करने की वास्तविक तैयारी की तरफ लेकर जा सकें। आखिर में यही कह सकते हैं कि भाषा शिक्षण का सवाल पूर्व-प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा के गलियारों तक हमारा पीछा करता है। ऐसे में जरूरी है कि इसको लेकर हर स्तर पर प्रयास हो और समाज में व्यापक स्तर पर पढ़ने-लिखने की एक स्थायी व सतत संस्कृति का विकास किया जा सके।

तभी हम स्टूडेंट्स को वास्तव में यह अहसास दिला सकेंगे कि पाठ्यक्रम केवल एक किनारा है, वास्तविक ज़िंदगी में इससे कहीं ज्यादा पठन सामग्री के साथ जुड़ने, जूझने और सीखने की अपार संभवानाएं हैं। शोध और अध्ययन के असीमित अवसर हैं यहाँ तक कि केवल भाषा में ही एक से ज्यादा भाषाओं पर पकड़ अनुवाद के क्षेत्र में भी अवसरों का रास्ता देती है। विदेशी भाषाओं का अध्ययन इस संभावनाओं को और विस्तार दे सकता है, इसलिए भाषा शिक्षण को ज्यादा व्यापक नज़रिये और वैश्विक परिदृ्श्य में देखने की जरूरत है। बोर्ड परीक्षा की तैयारी व पढ़ाई को भी इस नज़रिये से देखने की जरूरत आज के दौर में है।

(आप एजुकेशन मिरर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो कर सकते हैं। अपने आलेख और सुझाव भेजने के लिए ई-मेल करें mystory@educationmirror.org पर और ह्वाट्सऐप पर जुड़ें 9076578600 )

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