शिक्षक कहते हैं, “आठवीं के बच्चों को भी पढ़ना सिखा रहे हैं”
एक स्कूल के शिक्षक बातचीत के दौरान कहते हैं, “हम आठवीं कक्षा में भी बच्चों को पढ़ना सिखा रहे हैं। सातवीं में भी बच्चे को पढ़ना सिखा रहे हैं। अगर पहली-दूसरी कक्षा में बच्चे पढ़ना सीख जाएं तो हमारा काम बहुत आसान हो जायेगा। इससे हम आगे की कक्षाओं को पढ़ाने में बहुत आसानी हो जाएगी।” इस स्थिति को ‘रीडिंग क्राइसिस’ की संज्ञा दी जा सकती है।
यह संकट केवल हिंदी के साथ है, ऐसा नहीं है। बच्चे सौ तक गिनती लिख तो लेते हैं, लेकिन उसे पढ़ नहीं पाते। अगर उनसे कोई अंक लिखने के लिए कहो तो वे लिखन में ख़ुद को असमर्थ बताते हैं। स्कूलों की ऐसी स्थिति को देखकर लगता है कि बच्चों के ऊपर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वे सीख रहे हैं या नहीं सीख रहे हैं, इस बात के ऊपर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
बच्चों को मिलने वाला समय कहाँ जा रहा है, क्या कारण है कि शिक्षक कक्षा में नहीं जा पा रहे हैं। इसकी एक वजह प्रशिक्षण और विभिन्न गतिविधियों में शिक्षकों की व्यस्तता है। इससे उनके लिए पहली-दूसरी कक्षा को पर्याप्त समय दे पाना संभव नहीं होती। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि पहली कक्षा में बहुत से छोटे बच्चों (अंडर एज बच्चों) का प्रवेश हुआ है, जो किसी तरीके पहली पास करके दूसरी में चले जाएंगे। इस प्रक्रिया में वे अपनी कक्षा के स्तर के अनुरूप पठन कौशल का विकास नहीं कर पाएंगे और अंततः पढ़ाई की दौड़ में पीछे छूट जाएंगे। अगर आगे बढ़ भी गये तो 9वीं कक्षा में छंटनी के बाद बाहर कर दिये जाएंगे।
यही कारण है कि शिक्षक बच्चों के कक्षा के अनुरूप स्तर का विकास किये बग़ैर क्रमोन्नत करने का विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि अगर 9वीं दसवीं के स्तर पर बच्चों को फेल किया जाता है, तो छोटी कक्षाओं के लिए ऐसी व्यवस्था क्यों हटा ली गयी। उनका कहना है कि परीक्षा के कारण बच्चे चालू सत्र में भी पढ़ाई पर ध्यान देते हैं। अगर परीक्षाएं न हों और बच्चों को कोई परिणाम न मिले, सारे लोग पास हो जाएं तो उस परीक्षा का महत्व ही क्या रह जाएगा? इससे बच्चों क पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाली कोई बात शेष नहीं रह जाती।
शिक्षक कहते हैं, “परीक्षा में खराब परिणाम के कारण तनाव की घटनाएं बड़े बच्चों में होती हैं। इसमें भी ज़्यादा तनाव का कारण घरेलू परिस्थितियां होती हैं, जिसमें घर वालों की तरफ़ से कहा जाता है कि अगर फेल हो गया तो ऐसा कर देंगे। वैसा कर देंगे। तुम्हारी पढ़ाई बंद करवा देंगे। काम करने के लिए भेज देंगे आदि-आदि। वे कहते हैं कि छोटी कक्षाओं में बच्चों को फेल न करने का असर बच्चों के करियर पर पड़ता है। ऐसे माहौल में बच्चे प्रतिस्पर्धी माहौल में आगे बढ़ना नहीं सीख पाते। आगे जाकर तो उन्हें समाज के बाकी बच्चों के साथ प्रतियोगिता तो करनी ही पड़ती है।”
तनाव के बारे में शिक्षक एक ग़ौर करने वाली बात कहते हैं, “तनाव की शुरुआत समझदारी के साथ होती है। छोटे बच्चों को पास होने की ख़ुशी होती है, लेकिन फ़ेल होने या कम नंबर आने पर वे बड़े बच्चों की तरह तनाव में नहीं आते। इसके लिए वे आठवीं की बोर्ड परीक्षा का हवाला देते हुए कहते हैं कि इसके कारण बच्चों की पढ़ाी अच्छी होती थी, शिक्षक भी ध्यान देते थे और बच्चों को भी परीक्षा में बेहतर परिणाम हासिल करने की ललक होती थी।
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