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‘कम वेतन, काम के ज्यादा घंटे और थोड़ा सम्मान- संक्षेप में टीचिंग यही है?

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एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में टीचिंग एक कम वेतन वाला प्रोफ़ेशन है।

‘कम वेतन, काम के ज्यादा घंटे और थोड़ा सम्मान- संक्षेप में टीचिंग यही है।’ (Low pay, long hours, little respect – in short, teaching) यह एक ख़बर की हेडलाइन है। जो शिक्षकों की स्थिति के बारे में काफी कुछ कहती है और वस्तुस्थिति के बेहद करीब है।

मगर हमारे देश में तो  लोगों को लगता है कि टीचिंग प्रोफ़ेशन में तो काम बिल्कुल नहीं है, फिर इतने पैसे की क्या जरूरत है। लोग कहते हैं कि शिक्षकों को मोटी सेलरी मिल रही है. मगर उनके स्कूलों का रिजल्ट उतना अच्छा नहीं है। यह सारी बातें संकेत करती हैं कि शिक्षा की बदहाली की सारी जिम्मेदारी सिर्फ़ अकेले शिक्षकों की ही है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है।

सिर्फ शिक्षक ही जिम्मेदार नहीं

किसी भी स्कूल की स्थिति को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं।  जैसे स्कूल किस समुदाय में स्थित है, स्कूल के बारे में समुदाय या पास-पड़ोस के लोगों का नज़रिया क्या है, वहां समुदाय के प्रभावशाली तबके के बच्चे कौन से स्कूलों में पढ़ने के लिए जाते हैं। समुदाय के लोगों के साथ स्कूल का कैसा रिश्ता है? समुदाय से आने वाले लोगों के साथ स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों का कैसा रिश्ता है, शिक्षकों का बच्चों के साथ बर्ताव कैसा है, शिक्षक बच्चों को पढ़ाते समय उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक स्थिति को समझते हुए व्यवहार करते हैं या नहीं।

शिक्षक अपने काम को किस नज़रिये से देखते हैं, सिंगल टीचर स्कूल है या उस स्कूल में पर्याप्त शिक्षक हैं, शिक्षकों को जो आदेश दिये जाते हैं, उनको व्यावहारिक रूप से लागू करने के लिए स्कूल ऑवर्स पर्याप्त हैं या फिर उस काम को पूरा करने के लिए क्लासरूम टीचिंग का टाइम देना पड़ेगा, सरकार का सरकारी स्कूलों या सभी स्कूलों के प्रति क्या नज़रिया है, वह शिक्षा के लिए आवंटित होने वाला पैसा बढ़ा रही है या कम कर रही है, स्कूलों में जिन शिक्षकों की नियुक्ति की जा रही है क्या उसमें शैक्षिक योग्यता वाले पैमाने में ढील दी जा रही है या नियुक्ति के समय ऐसे पैमानों को लेकर कोई समझौता नहीं किया जाता है।

नज़रिये में बदलाव की जरूरत

शिक्षकों को पूरा वेतन मिल रहा है क्या, या फिर एक ही स्कूल में अलग-अलग वेतन वाली स्थिति मौजूद है जैसे कुछ शिक्षक कहते हैं कि हमें तो बस सात हज़ार मिलते हैं तो हम भला कैसे पढ़ाएं। हमारा तो पढ़ाने में मन ही नहीं लगता है। जबकि वहीं दूसरे शिक्षक कहते हैं कि हम तो चार साल से पढ़ा रहे हैं मगर हमें सिर्फ आधा वेतन मिल रहा है, तीसरे शिक्षक कहते हैं कि हम भला क्यों पढ़ाएं, जब फलां शिक्षक तो पढ़ा ही नहीं रहे, जबकि उनको भी हमारे बराबर वेतन मिल रहा है।

शिक्षक अपने काम को बच्चों की नज़र से देख पाते हैं या नहीं। जैसे बच्चे वेतन वाली बात को नहीं समझते। बच्चे तो बस इतना समझते हैं कि अगर आप उनके शिक्षक हैं तो आपकी जिम्मेदारी है उनको पढ़ाना। इसलिए वे तो प्राथमिक रूप से आपके ऊपर आश्रित हैं। बच्चा ख़ुद से सीखता है। वह अपने ज्ञान का स्वाभाविक रूप से निर्माण करता है ऐसी सैद्धांतिक बातें अपनी जगह ठीक हैं। मगर यह बात भी जरूरी है कि शुरुआती अवस्था में एक बच्चे को निर्देशन की आवश्यकता होती है। चीज़ों को समझाने के लिए किसी के सपोर्ट की जरूरत होती है ताकि अपनी जिज्ञासा को ख़ुद से शांत करने की स्वाभाविक प्रक्रिया में वह पढ़ना-लिखना और ख़ुद को अभिव्यक्त करना भी सीख सके।

बढ़ रहे हैं काम के घंटे

अगर शिक्षकों के काम के घंटे (वर्किंग ऑवर्स) की बात करें तो यह  वाकई ज्यादा है। बच्चों के नज़रिये से भी और शिक्षकों के नज़रिये से भी। राजस्थान समेत विभिन्न राज्यों में स्कूल का समय बढ़ाने को लेकर लंबी बहस हुई। जो अभी भी जारी है। रही बात सम्मान की तो निश्चिततौर पर उसमें कमी आई है। पहले वाली स्थिति अब नहीं रही। लेकिन बदलते दौर में शिक्षक ख़ुद को नई स्थिति के लिए तैयार करें, यही बेहतर होगा। किसी और से सम्मान की अपेक्षा करने से ज्यादा बेहतर होगा कि शिक्षक ख़ुद अपने काम को सम्मान और महत्व दें

इसके लिए शिक्षक क्या कर सकते हैं? जाहिर सी बात है कि ख़ुद को अपडेट करने (पढ़ने-लिखने) के ऊपर ध्यान दे सकते हैं। क्लासरूम ही वह जगह है जहां से वे बच्चों के साथ एक नये रिश्ते की शुरुआत कर सकते हैं जो ज्यादा सहज और स्वाभाविक होगा। पहले जैसी दूरी नहीं होगी। जहाँ बच्चे अपनी बात कहने से डरेंगे नहीं और सहजता के साथ अपना डर भी साझा कर पाएंगे, यही शायद एक शिक्षक के लिए असली सम्मान होगा। डर पर आधारित सम्मान तो वास्तव में ताक़त का सम्मान है, आपका नहीं।

इसके साथ-साथ समुदाय का नज़रिया भी शिक्षकों के प्रति बदलना चाहिए। मीडिया को भी एजुकेशन रिपोर्टिंग में थोड़ी गंभीरता और संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। ताकि सनसनी के चक्कर में अर्थ का अनर्थ न हो।

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