हमारा बच्चों के साथ खेलना क्यों ज़रूरी है?
इस पोस्ट में पढ़िए संतोष वर्मा का आलेख। एजुकेशन मिरर पर उनके पहले लेख में खेल और जीवन कौशलों के विकास के आपसी रिश्ते की पड़ताल की गई है।
“मैडम जी आप मेरी टीम में। सर आप मेरी टीम में। पहले टॉस करते हैं फिर अपनी-अपनी बारी लेते हैं।” कुछ ऐसे ही शब्दों और वाक्यों का प्रयोग बच्चों के द्वारा किया जा रहा था। यह समय था, विद्यालय में मध्यांतर का।
जब सभी बच्चे खाना खा चुके थे और शिक्षक साथी बच्चों के साथ क्रिकेट और अन्य खेलों का लुत्फ़ उठा रहे थे। इस खेल में सभी कक्षाओं के बच्चे शामिल थे।
शिक्षा का उद्देश्य महज बच्चों को किताबी ज्ञान देना नहीं है। बल्कि उनमें सोचने, समझने, तर्क करने और क्या सही है, क्या गलत है इत्यादि बातों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने की क्षमता का विकास करना भी है। जाहिर सी बात है कि ये सभी कौशल एक कक्षा की चाहर-दिवारी में विकसित नही हो सकती। इसलिए हमें ऐसे अवसर पैदा करने होंगे जहाँ बच्चों को इस तरह की क्षमताओं के विकास का अवसर मिले।
खेल से जीवन कौशलों का विकास
अगर हम सोचने की बात करें तो बच्चा जब कोई खेल, खेल रहा होता है तो वह उसकी योजना बनाता है। खेल की रणनीति क्या होगी और उसे अमल में लाने के क्या तरीके होंगे इस पर विचार करता रहता है। अपने लक्ष्य की ओर अग्रसित रहता है। यही बात समझने की प्रक्रिया में है कि एक बच्चा खेल को विभिन्न मुद्दों से जोड़ कर देखता है और जब वह अपने खेल को खेलता है तो उसमें सामाजिक और व्यावहारिक परिदृश्य को बखूबी जान पाता है।
उदाहरण के तौर पर अगर मैं अपने अनुभव को साझा करूँ तो, जब मैं अपने साथियों के साथ फ्रिसबी या अन्य कोई खेल खेलता हूँ तो चोरी करने या झूठ बोलने का प्रयास नही करता हूँ। इसके पीछे की सोच होती है कि अगर मैंने ऐसा किया तो सामने वाले साथी खिलाड़ी भी ऐसा ही करेंगे और मेरी छवि भी खराब होगी।
हो सकता है कि बच्चे इस बारे में थोड़ा कम सोचें या फिर पूरे मामले को अलग नजरिए से देखें। मगर वो इन सब बातों का खेल के दौरान ध्यान जरूर रखते हैं। वे टीम के आपसी सदस्यों में सौहार्द की भावना को बनाये रखते हैं। इसी तरह तर्क और निर्णय लेना भी कक्षा के बाहर की गतिविधियों से गंभीर रूप से जुडी हुई दिखाई देती हैं। इन कौशलों का निर्माण जब बच्चा खेलता है और उसका खेल के प्रति कितना जुडाव और सकारात्मक भावना है इस पर निर्भर करता है।
बच्चे ये सब कैसे सीखेंगे?
ऊपर की गई सभी बातें तो ठीक हैं, लेकिन प्रश्न उठता है कि बच्चे ये सब कैसे करेंगे वो तो आजकल लड़ाई-झगडे़ की स्थिति तक ले आते हैं अपने खेलों से तो ये सब कौशल कैसे विकसित करेंगे? हाँ, बिलकुल सही सवाल है। यह सब कहने की बातें महज हैं इनका हकीकत में कोई वजूद नही हैं, हम सभी यही कहेंगे, है न?
लेकिन, हम बड़ों की भूमिका इन बच्चों को प्रभावित करती हैं। इसीलिए हमें उनके खेलों में अपना योगदान देना चाहिए। साथ ही देखना-समझना चाहिए कि खेल के दौरान कोई बच्चा क्या कर रहा है? ऐसे तो हमने गलियों में बहुत से बच्चे देखे होंगे जो खेलते रहते हैं और छोटी छोटी बातों पर लड़ाई एक विकराल रूप धारण कर लेती हैं। ऐसी स्थितियों से बचने में भी हमारी भूमिका मददगार साबित हो सकती है।
खेल पर बातचीत कैसे हो?
हम खेल के बाद बच्चों के साथ एक गोल घेरे में बैठकर बात कर सकते हैं। इस बातचीत में कुछ सवालों से मदद मिल सकती है जैसे आज हमने कौन-कौन सा खेल खेला, खेल के दौरान की तीन सबसे अच्छी बातें क्या थीं? आपको किसी साथी का कौन सा व्यवहार अच्छा लगा? कौन सा व्यवहार आपको पसंद नहीं आया।
अभी आपको कैसा लग रहा है? खेल के दौरान किस तरह के भाव मन में थे। यदि खेल के दौरान कोई घटना हुई है तो उसके ऊपर बात करते हुए बाकी सदस्यों की राय ली जा सकती है। सामूहिक रूप से किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है।
यदि माता-पिता, शिक्षक या अन्य बड़े बच्चों के साथ ऐसे संवाद करें तो यकीनन हम अपने बच्चों में विभिन्न तरह के जीवन कौशलों का विकास कर सकते हैं। इससे वे अपने जीवन की किसी भी एक घटना के बारे में ख़ुद सोच-विचार करके, तर्कों के माध्यम से सही और गलत की पहचान करते हुए निर्णय लेने में सक्षम हो सकेंगे।
एक स्कूल का उदाहरण
राजस्थान के चुरू जिले के राजगढ़ तहसील के एक विद्यालय “उच्च प्राथमिक विद्यालय बासगोविंद सिंह” में शिक्षक बच्चों के साथ खेलते हैं और उनके प्रत्येक कामों में सहयोग करते हैं। इससे स्कूल के बच्चों में इन सभी कौशलों को विकसित होते हुए देखने का मौका मिला। खेल के माध्यम से बच्चों में साफ़ सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ी। उन्होंने अपनी बात को व्यस्थित तरीके से रखने की क्षमता का विकास किया। वे रोज़ाना साफ-सुथरे कपड़े पहनकर स्कूल आते हैं। इस तरह के सकारात्मक माहौल का असर बच्चों की पढ़ाई पर भी पड़ा है। क्लासरूम में बच्चे पढ़ाई के ऊपर ज्यादा ध्यान देते हैं।
साथ-साथ खेलने के कारण इन बच्चों में भी शिक्षकों के प्रति एक प्रेम और स्नेह का भाव रहता है। क्योंकि खेल के दौरान शिक्षक व छात्रों के बीच की दूरी कम हो जाती है। वे एक टीम के सदस्य की भांति खेल में भागीदारी कर रहे होते हैं। इससे उनकी बात का असर बढ़ जाता है। वे बच्चों को सहजता के साथ अपनी बात कह पाते हैं।
किसी विद्यालय में खेल गतिविधियों का नियमित तौर पर होना और बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों की भागीदारी होने का सकारात्मक असर पड़ता है। यह बात ऊपर वाले स्कूल के उदाहरण से स्पष्ट है।
इससे शिक्षकों और बच्चों के बीच जो डर की मौजूदगी है, वह भी कम होगी। विद्यालय में सही अर्थों में भयमुक्त वातावरण का निर्माण होगा। इसके साथ ही शिक्षक ज्यादा अच्छे से अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की विभिन्न क्षमताओं को रेखांकित करना और उसे महत्व दे पाएंगे। ऐसी क्षमताओं के प्रति सजगता उनको पढ़ाई के दौरान बच्चों को प्रेरित करने और उनके सामने स्पष्ट लक्ष्य रखने व उसे हासिल करने के लिए प्रेरित करने में मददगार होगी।
(लेखक परिचयः इस पोस्ट के लेखक संतोष वर्मा वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु से एमए एजुकेशन का कोर्स कर रहे हैं। संतोष मूलतः लखनऊ के रहने वाले हैं। पिछले पाँच वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इन्होंने गांधी फेलोशिप के दौरान राजस्थान के चुरू ज़िले में प्रधानाध्यापकों के नेतृत्व कौशल विकास पर भी काम किया है।)
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बहुत-बहुत शुक्रिया आशु। संतोष का पहला प्रयास काफी अच्छा है। वे भविष्य में ऐसे ही शिक्षा से जुड़े विभिन्न मुद्दों और अपने प्रत्यक्ष अनुभवों पर लिखते रहें, इसके लिए हमारी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएं।
Thank you Balveer Ji for sharing your views regarding this post on sport. It’s credit goes to Santosh Verma’s efforts to articulate that idea so well.
I appreciate your ideas, because game/sports are parts of learning and education for all round development of a child. Very nice article. Keep writing continuously.
अच्छा artical. Keep writing. ☺👍