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चर्चा मेंः बच्चों पर ऑनलाइन पढ़ने का दबाव तो है, मगर हमारी तैयारी कितनी है?

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जयकिशन गोडसोरा कहते हैं कि वास्तविक रूप से सीखने में प्रत्यक्ष संवाद की बड़ी गहरी भूमिका होती है।

हम सब कई छोटे -छोटे मुद्दों पर ध्यान देते हैं, पैसे लगाते हैं, झगड़ते हैं, खास महत्व भी देते हैं किन्तु कभी-कभी जो सबसे अहम चीजों में से एक है जैसे शिक्षा, इनपर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते । जो कि मानव विकास का आधार है। जो हमें अपना जीवन जीने के लिए, जीवन-यापन का साधन अर्जित करने के लिए तैयार करती है । जीवन मूल्यों को सीखने में मदद करती है । एक दूसरे से प्रेम करना और एक दूसरे के प्रति संवेदनशील होने और आदर करना सीखने में मदद करती है। मानव जीवन के लिए कोई समस्या आ जाए तो अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मदद से हल करने में सहायक होती है।

इसके बावजूद हम इसे हल्के में लेते हैं । जैसे कई मान्यताओं को अपर्याप्त विश्लेषण के साथ किसी काम को करने के लिए निकल पड़ते हैं। जैसे कि कोई भी पढ़ा सकता है, बच्चे को कुछ नहीं आता है और हम जब सिखाएँगे बच्चा तभी सीखेगा नहीं तो नहीं सीखेगा, सरकारी स्कूल में गरीब घर के बच्चे आते हैं कुछ ही बच्चे होशियार होते हैं , वे कमजोर होते हैं उनके पालक ध्यान नहीं देते आदि। इन प्रचलित मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के कारण आज भी हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा वास्तविक सीखने की प्रक्रिया से महरूम है जिसके कई हानिकारक पहलू हैं जो शायद हम नहीं जानते होंगे ।

‘ऑनलाइन लर्निंग’ से जुड़े प्रमुख मुद्दे

इसके कारण जो प्रक्रिया हमें ठीक लगती है उसे शिक्षा जैसे तंत्र में बगैर गहन विचार-विमर्श और बहस किए अपना लेते हैं। उसमें से आज के समय एक प्रासंगिक मुद्दा है, जो लॉकडाउन के कारण अग्रसर और तेज गति से सरकारी और गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं में लागू हो रहा है। वो है ऑनलाइन लर्निंग प्लैटफ़ार्म। इससे जुड़े प्रमुख मुद्दों को मैं यहाँ चर्चा के लिए आपके सामने रखना चाहूँगा।

इसके कारण किसी परिवार पर पड़ने वाले पैसे का अतिरिक्त बोझ, कितना वास्तविक सीखना हो पाएगा, अत्यधिक तकनीक के प्रयोग से बच्चों के व्यवहार में होने वाले नकारात्मक दूरगामी प्रभाव, इसके मदद से असमान शिक्षा को बढ़ावा देना और तकनीक के उपयोग के लिए हमारी तैयारी।

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इन मुद्दों पर चर्चा मुख्यत: उन परिवारों को ध्यान में रखकर की जाएगी जो अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं या फिर कम फीस वाले प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं । हम यहाँ उन परिवारों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं जो शायद इसके उपयोग को बड़ी सरलता के साथ और सीमाओं के साथ अपने जीवन में आत्मसात कर चुके हैं । इसकी चर्चा की शुरुआत नीचे दिए गए केस की मदद लेते हुए करेंगे ।

केस 1:

दैनिक भास्कर रायपुर 3 जून 2020, केरल: ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर पाने से निराश दलित छात्रों ने आत्महत्या की। केरल में ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर पाने से निराश मलप्पुरम जिले में एक छात्रा ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली। पुलिस के अनुसार 14 साल की देविका ने सोमवार शाम को खुद आग लगा ली। वह नौवीं कक्षा में पढ़ती थी। केरल में सोमवार से ही ऑनलाइन कक्षाएं शुरू की थी, लेकिन उसके घर में स्मार्ट फोन या कम्प्युटर नहीं था। इससे वह निराश थी। छात्रा का पिता दिहाड़ी मजदूर हैं। केरल के शिक्षा मंत्री सी रवीन्द्रनाथ ने घटना को लेकर रिपोर्ट तलब की है। केरल में ऑनलाइन क्लासेस विक्टर्स चैनल पर प्रसारित की जा रही है।

केस 2:

मेरी एक काम करने वाली महिला से बात हुई जिसका पति भी काम करता है । आज से 2 साल 8 महीने पूर्व उनकी एक बेटी हुई और उसने कुछ 8 महीने से लेकर 1 साल के भीतर बात करना शुरू कर दिया था। फिर वह काफी बात करने लगी थी । चंचल थी, सबसे मिलती भी थी। अब से कुछ 8 महीने पूर्व उनकी व्यस्तता के कारण उन्होने अपनी बेटी को मोबाइल देना शुरू किया और करीब 2 महीने पहले उन्होने महसूस किया कि उनकी बच्ची कुछ बोल नहीं रही है। इस पर उन्हें अपनी भूल का एहसास भी हुआ और दुख भी।

केस 3:

मेरा एक बेटा है, उम्र दस साल, मैंने उसे खुला छोड़ दिया मतलब जब मन किया टी0वी0 देख लिया, ऑनलाइन क्लासेस कर लिया, फिर से टी0वी0 देख लिया, फिर मोबाइल पर कुछ लर्निंग विडियो देख लिया और कुछ गेम खेल लिया । यह सब लॉक डाउन के दौरान शुरू हुआ। कुछ दिन बाद मैंने महसूस किया कि उसे पढ़ने के लिए कहा जाये तो उसका मन नहीं लगता , कुछ पढ़ने की कोशिश करने पर भी वह ध्यान नहीं लगा पाता, पढ़े हुए को समझ नहीं पाता और याद भी नहीं रख पाता । टी0वी0 बंद करने के लिए कहने पर गुस्सा हो जाता और रोने लगता है।

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ऊपर के तीनों केस को देखने पर यह पता चलता है कि यह कुछ इस तरह के मुद्दों को खोल रही है । संसाधन की कमी के कारण ऑनलाइन पढ़ाई के दबाव ने एक गरीब दलित परिवार के बच्चे की जान ले ली । तकनीक (मोबाइल) के ज्यादा उपयोग ने एक सामान्य बच्चे की प्राकृतिक बोलने की क्षमता में बदलाव लाया जिससे वो बोलना कम कर रही है साथ ही समाजीकरण के प्रक्रिया से वह आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में प्रवेश कर रही है। (इसके बाइलोजिकल कारण हो सकते हैं लेकिन उनकी माता के अवलोकन व अनुभव के आधार पर उनके भाव को चर्चा के लिए लिया गया है)। तकनीक (टी0वी0 और मोबाइल) के अत्यधिक प्रयोग से बच्चे के व्यवहार में गुस्सा, ध्यान में कमी आदि की समस्याएँ उभर रही है।

हम उस बच्चे के साथ हुई गलती कैसे सुधारेंगे, जिसकी जान चली गई?

यहाँ शिक्षाविद कृष्ण कुमार की कुछ महत्वपूर्ण बातें इंगित करना चाहूँगा जो वे बातचीत और सीखने के संबंध को लेकर कहते हैं । पहली बात तो वो यह कहते हैं कि “बातचीत के प्रति उपेक्षा की वजह से हम शिक्षा में बातचीत के उपयोगों की अवहेलना करते आ रहे हैं” और दूसरी बात “नर्सरी व प्राइमरी स्कूल के बच्चों के लिए बातचीत करना सीखने और सीखी हुई चीज को सुदृढ़ बनाने का एक बुनियादी माध्यम है”। यह बातें यह बताने के लिए काफी है कि मानवीय संवाद सीखने के लिए कितना महत्वपूर्ण है जिसका हम ऊपर के अलग-अलग केस के संदर्भ में जाने-अंजाने में नजरंदाज करते हुए दिख रहे हैं।

मैं यह बता दूँ कि स्कूल लगभग दो महीने (मार्च-अप्रैल 2020) से बंद है और मई-जून में गर्मी की छुट्टियाँ हो जाती है । ज्यादा गर्मी बढ़ने पर आधा महीना छुट्टी सरकार और बढ़ा देती है।

हम खुद से यह सवाल पूछ सकते हैं क्या पढ़ाई का बोझ इतना बढ़ा दिया जाए कि बच्चा बोझिल महसूस करे और अपनी जान तक दे दे ? अब जब उस बच्चे ने जान दे दी है तो आगे की पढ़ाई कौन करेगा ? उसके परिवार को इसका क्या लाभ मिलेगा ? और इस समाज को उसके शिक्षा का क्या लाभ मिलेगा जब वो इस दुनिया में रही ही नहीं ? वो जिंदा रहती तो शायद आगे की पढ़ाई को जारी रख पाती । यहाँ पर यह परिवार आगे इस क्षण या भूल को सुधारने की कोशिश कम से कम उस बच्ची के साथ तो नहीं कर सकती जिसकी जान जा चुकी है।

सामाजिक प्रक्रिया में भागीदारी और बच्चों स्वाभाविक व्यवहार को कैसे प्रभावित करती है टेक्नोलॉजी?

हम कैसे समाज को बढ़ावा देना चाहते हैं जिसमें सामाजिक होने से ज्यादा एकांत होने (मोबाइल से अधिक जुड़े होने के संदर्भ में) पर अधिक ज़ोर दे रहे हैं। जिससे बच्चे की प्राकृतिक क्षमता ही छिन जाए तो वह समाज में कैसे भागीदारी करेगा? या फिर ऐसी लत लगना भी किस काम का जिसमें यह आदत बन जाए कि अगर यह मुझे नहीं मिला तो उसका एक अलग हिंसात्मक प्रतिक्रिया होगी और यह व्यवहार लंबे समय में किस तरह के परिणाम दे सकता है आप इसकी कल्पना करके देखिए।

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इसमें अच्छी बात यह है कि नीचे के दो केस में दोनों ने समय पर कदम उठाने शुरू किए जिसका सकारात्मक प्रभाव भी दिखना शुरू हो गया है । इसका मतलब यह है कि एक सामाजिक प्रक्रिया में भाग लेना और प्राकृतिक व्यवहार की शुरुआत दिखना शुरू हो गया जब उन्होने तकनीक को बहुत कम और सीमित करना शुरू किया । यह चर्चा यहीं खत्म नहीं होती बल्कि और मुद्दे भी खोलती है। जब हम यह जानते हैं कि हमारे ज़्यादातर बच्चे उन परिवारों से आते हैं जिनके माता पिता के लिए हर रोज कमाना या काम करना जरूरी है जिससे उनका घर चल सके ।

क्या कहते हैं आँकड़े?

सर्वे (भारत सरकार संख्यिकी कार्यालय, 2019 और पीउ रिसर्च सेंटर, 2019) के अनुसार भारत में केवल 24% लोगों के पास स्मार्टफोन है साथ ही केवल 10.7% जनसंख्या के पास कम्प्युटर है जिसमें केवल 4.4% प्रतिशत ही ग्रामीण जनसंख्या ऐसी है जिसके पास ये कम्प्युटर हैं और 22% लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं ।

अगर मौजूदा अवस्था में वे संसाधन जिनकी ऑनलाइन पढ़ाई करने के लिए बेहद जरूरी है, उनकी उपलब्धता की यह स्थिति है, इसके उपयोग की यहाँ बात भी नहीं की जा रही है। यहाँ कहीं हम उन परिवारों को ज्यादा खर्च करने के लिए बाध्य तो नहीं कर रहे जिनके पास लॉकडाउन के कारण ऐसे भी आय के साधन कम हो गए हैं । आप कभी इस विषय में शिक्षक से भी बात कर सकते हैं और अभी कई तरह के अनुभव आपको सुनने मिलेंगे । या फिर कहीं हम औपचारिकता पूरी करने के चक्कर में ऐसा भी तो नहीं कर रहे कि हम कुछ बच्चों के साथ काम कर रहे हों और कुछ बच्चों को छोड़ दे रहे हों । अगर हम ऐसा कर रहे हैं तो कहीं गैर-बराबरी/ असमान शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा तो नहीं दे रहे?

कैसे मान लें कि तकनीक का इस्तेमाल ही सीखने का एक मात्र बेहतर विकल्प है?

अब हम एक और मूल मुद्दे पर आते हैं । हम सब यह इसलिए कर रहे हैं ताकि पढ़ाई छूट ना जाए, है ना? तो जरा ठहर कर थोड़ा इस पर भी बात करते हैं। यदि हम वास्तविक सीखने की बात करें तो यह जमीनी हकीकत से कोसों दूर है। जब हमारा स्कूल आम दिनों में खुला रहता है और जब कई शैक्षिक संस्थाएँ सीखने का आंकलन करती है तो उनके रिपोर्ट से हर साल हमें पता है कि मौलिक पढ़ने-लिखने और मौलिक गणित कर पाने में बड़ी संख्या में बच्चों को दिक्कत आती है ।

बच्चे जब कक्षा में हों तो शिक्षक का हाव-भाव जान सकते हैं, हो सकता है कई बार सवाल भी पूछ सकते हैं । शिक्षक उसे बोर्ड पर करके भी बता सकते हैं या उनके कॉपी में लिख कर भी दिखा सकते हैं और समूह में काम करना भी हो सकता है जो कि बच्चों के लिए एक-दूसरे से सीखने का सशक्त माध्यम है ।

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वर्तमान में जब इनमें से ज़्यादातर चीज हम ऑनलाइन लर्निंग प्लैटफ़ार्म में नहीं कर सकते और एक तरफा संवाद के भरोसे टिके हुए हैं , तो इस बात पर कैसे विश्वास किया जाए कि तकनीक का इस्तेमाल मौजूदा स्थिति में सीखने के लिए एक बेहतर विकल्प है। और तो और कृष्ण कुमार, गिजुभाई और जॉन हॉल्ट जैसे शिक्षाविद की मानें तो दोतरफा संवाद, बच्चे को कर के देखने का मौका और उस पर शिक्षक का अवलोकन कई महत्वपूर्ण पक्ष हैं जो सीखने की प्रक्रिया को सुदृढ़ करते हैं । और इन्ही अवलोकनों के आधार पर ही शिक्षक आगे की शिक्षण कार्य योजना बनाते हैं । यह सब अधूरी तैयारी वाले ऑनलाइन प्लैटफ़ार्म में कैसे संभव है ?

ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म को अपनाने के लिए हम कितने तैयार हैं?

इसमें मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि आप मिडिल क्लास को भी ले लीजिए तो भी ज़्यादातर परिवार इस ऑनलाइन लर्निंग प्लैटफ़ार्म के लिए तैयार नहीं है । इस तैयारी का मतलब बस इंटरनेट के साथ मोबाइल/टैबलेट खरीद लेना ही नहीं है। बल्कि उसके उपयोग और स्वयं के सीखने हेतु इसका उपयोग शामिल है। जिस सरलता से हम स्कूल में पढ़ने-लिखने का काम करते हैं उसी सरलता के साथ तकनीक को अपना लें, खर्च वहन कर लें, उपयोग कर लें और उपयोग के साथ समझ पाएँ और उद्देश्य की ओर बढ़ पाएँ । इससे मालूम पड़ता है कि ऑनलाइन प्लैटफ़ार्म की मदद से अपेक्षित वास्तविक सीखने में चुनौतियाँ लंबी है

मैं एक महत्वपूर्ण बात यहाँ बता दूँ कि इस सरल परिस्थिति के होने के बावजूद मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि यह तकनीक शिक्षक की जगह ले ले या ले सकता है बल्कि यह शिक्षक का एक सहयोगी हो सकता है । यदि कोई परिवार ऑनलाइन क्लास में भागीदारी करने को सीखना मान ले या कुछ रट कर सुनाने को सीखना मान ले, तो यह अलग बात है । मेरे अनुभव के अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा के लिए भारत में ज़्यादातर परिवार के बच्चे तैयार नहीं हैं, कुछ अपवाद जरूर होंगे। अभी उच्च शिक्षा में ऑनलाइन प्लैटफ़ार्म कुछ हद तक संभव है लेकिन उसमें भी और तैयारी की आवश्यकता होगी ।

अंतत: मैं यही कह सकता हूँ कि बहुत ज्यादा हाय तौबा मचाने की जरूरत नहीं है सदियों में एक-दो बार के लिए हमें धैर्य बनाए रखना चाहिए । इस बार का शैक्षिक सत्र थोड़ा लेट जरूर होगा लेकिन उसको कवर करने के लिए हमें समय मिलेगा और हम उपयुक्त रणनीति और शिक्षण शास्त्र का उपयोग करें तो वास्तविक सीखना भी होगा और कोर्स भी लगभग पूरा हो जाएगा । वरना हड़बड़ी में हम बड़े तकनीक (मोबाइल/इंटरनेट/डाटा/लर्निंग एप्प) के बाज़ार का एक उपभोक्ता बनकर रह जाएंगे और वास्तविक लक्ष्य हासिल भी नहीं हो पाएगा ।

संदर्भ

कुमार, कृ. (1996) बच्चे की भाषा और अध्यापक – एक निर्देशिका, नेशनल बुक ट्रस्ट: नई दिल्ली

हॉल्ट, जॉ. (2002) बच्चे असफल कैसे होते हैं, एकलव्य: भोपाल

बधेका, गि. (1988) दिवास्वप्न, उत्तर प्रदेश बाल कल्याण समिति: लखनऊ

संख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (2019) भारत में शिक्षा पर पारिवारिक सामाजिक उपभोग के मुख्य संकेतक, नई दिल्ली, पृ. 47

दैनिक भास्कर (2020) केरल: ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर पाने से निराश दलित छात्रों ने आत्महत्या की, दैनिक भास्कर रायपुर, अंक- 3 जून 2020

पीव रिसर्च सेंटर (2019) दुनिया भर में स्मार्टफोन का स्वामित्व बढ़ रहा है लेकिन हमेशा बराबर नहीं, ऑनलाइन लिंक: https://www.pewresearch.org/global/2019/02/05/smartphone-ownership-is-growing-rapidly-around-the-world-but-not-always-equally/, उपयोग तिथि: 8 जून 2020,

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(लेखक परिचयः जयकिशन गोडसोरा के पास 14 वर्षों का काम करने का अनुभव है जिसमें उन्होने शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर शिक्षकों और बच्चों के साथ काम किया है। इसके साथ ही, शिक्षा और विकास से जुड़े कई रिसर्च, एक्शन रिसर्च में काम किया है। उसमें से एक “उड़ीसा में आदिवासियों की स्थिति 2014- मानव विकास का एक विश्लेषण” (सेज प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित) हुई और कई शोध अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के द्वारा प्रकाशित हुए। इसके साथ ही आदिवासी समुदाय के साथ भी उनके अधिकारों को लेकर काम किया है। वे अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेव्लपमेंट और बिरसा संस्थान के साथ काम करने का अनुभव रखते हैं। उन्होने अपनी मास्टर डिग्री बर्मिंग्हम विश्वविद्यालय इंग्लैंड से फोर्ड फ़ाउंडेशन इंटरनेशनल फेलोशिप की मदद से पूरी की। लेखक मूलतः झारखण्ड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के रहने वाले हैं।)

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4 Comments on चर्चा मेंः बच्चों पर ऑनलाइन पढ़ने का दबाव तो है, मगर हमारी तैयारी कितनी है?

  1. Anonymous // June 15, 2020 at 8:46 am //

    तकनीक शिक्षा का विकल्प नही ये सही बात हैबपर तकनीकी होना उतना ही आवश्यक है। आरंभिक स्तर पर बच्चों को तकनीक से जोड़ हम सही मायने में अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो रहे है पर तकनीक की उपेक्षा सम्भव नही।
    भारतीय परिस्थितियों में इसे एक बोझ मन जाएगा क्योंकि संसाधन और ऑनलाइन पढ़ने और पढ़ाने वालो के पास ऐसे अनुभव नही हैं।
    ग्रामीण क्षेत्री में स्थिति थोड़ी ज्यादा खराब है और इसपर सरकारी संस्थाओं को सोचने की जरूरत है।

    लेख कई मुद्दों को उठाने में कारगर साबित हुई आपको बधाई।
    डॉ राजेश कुमार ठाकुर

  2. Anonymous // June 15, 2020 at 7:35 am //

    वर्तमान में चल रहे संकट को आधार मान कर, शिक्छा के मूल स्वरूप को एक खतरनाक मोड़ देने की जो कोशिश हो रही है लेख उसी ओर ईसारा कर रहा है। आमने सामने संवाद का कोई विकल्प नहीं हो सकता।वर्तमान में चल रही कोशिशे अगर सफल होती है तो परिणाम भयानक होंगे।

  3. Anil Raut // June 14, 2020 at 10:40 am //

    Excellent article. Help in understanding the various issues related to online teaching and learning

  4. Durga thakrr // June 14, 2020 at 8:01 am //

    सटीक विश्लेषण , वास्तविक वस्तुस्थिति यही है जिससे हर निर्धन परिवार का बच्चा जूझ रहा है । आर्थिक असमानता के साथ शैक्षिणिक असमानता की खाई गहरी होती जा रही हैं । सरकारी तंत्र ने ऑनलाइन स्टडी जो विकल्प लॉकडौन में निकाला हैं ,उस के कई दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं । इस लेख से हमने ऑनलाइन स्टडी की चुनौतियों को बहुत ही करीब जाना है ।

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