शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना है वक्त की जरूरत – रोहित धनकर

सेमीनार के पहले दिन अपना-अपना परचा पढ़ते हुए प्रतिभागी।
एजुकेशन मिरर के साथ यह रिपोर्ट मनोहर चमोली साझा की है। आपने तीन दिन के विभिन्न सत्रों का सिलसिलेवार ब्योरा लिखा है जो ग़ौर से पढ़े जाने की माँग करता है।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय,बेंगलूरु के साथ सहयोगी संस्था अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली के तत्वाधान में तीन दिवसीय वार्षिक संगोष्ठी कश्मीरी गेट,दिल्ली के निकट स्थित अम्बेडकर विश्वविद्यालय के सभागार में सम्पन्न हुई।
23 मई से आरंभ हुई शैक्षिक मुद्दों पर हिन्दी में संभवतः ऐसी विहंगम वार्षिक संगोष्ठी पहली बार आयोजित हुई। इसे शिक्षा के सरोकार-1 नाम दिया गया। स्कूली शिक्षा के बदलते परिदृश्य में अध्यापन कर्म की रूपरेखा केन्द्रीय विषय रहा।
सोचने के लिए मजबूर करने वाले सवालों से बचना क्यों?
उद्घाटन अवसर पर अम्बेडकर विश्वविद्यालय के उप कुलपति श्याम मेनन ने कहा, “आज मनुष्य की सफलता उसके वेतन से तय हो रही है। आज हालात ऐसे हैं कि बहुत कुछ अकल्पनीय और अप्रत्याशित घटता है तो ऐसे वर्ग के बारे में सोचना पड़ता है कि ये वर्ग कहां पढ़ा होगा। क्या आज स्कूल यह सीखा रहे हैं कि बस अपनी परवाह करें। दूसरों के बारे में मत सोचें। परीक्षाओं को भी देखिए तो ऐसा लगता है कि सोचना मना है। जो सवाल सोचने पर बाध्य करता है उसे छोड़कर आगे बढ़ना मुनासिब समझा जाने लगा है।”
उन्होंने आगे कहा, “अब समय ऐसा आ गया है कि निर्देशों का अनुपालन करना ही नियति बन गया है। अपना विवेक लगाने की आवश्यकता नहीं है। सवाल करना या सन्देह करने का भाव नहीं रखना है। तेरह मिनट के अपने संबोधन में श्री मेनन ने सभागार में उपस्थितों को सोचने के लिए बाध्य कर दिया। उन्होंने कहा कि यह सोचने का वक्त आ गया है कि हम किस ओर जा रहे हैं। हमारा पढ़ा हुआ मनन करने के लिए नहीं है। भूलने के लिए है। क्या यह सही है?”
शिक्षा में गुणवत्ता के विकास पर चर्चा जरूरी
प्रख्यात शिक्षावद् रोहित धनकर ने अपने बीस मिनट के संबोधन में कई रेखांकित की जाने वाली बातों की ओर इशारा किया। उन्होंने अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश भी डाला। उन्होंने कहा कि समानता का भाव स्थापित करना और न्यायपूर्ण समाज के लिए अपना योगदान करना ही विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य है। उन्होंने सरोकारों पर विस्तार से चर्चा की।
उन्होंने कहा कि सोचना, सीखाना-सीखना, दुनिया को समझना, गैर बराबरी का विरोध करना आज की जरूरत है। उन्होंने कहा कि हर संवेदनशील व्यक्ति को शिक्षा की गुणवत्ता में विकास की बात करनी होगी। हमारा स्पष्ट मानना है कि हमें भारतीय भाषाओं में काम करने की आवश्यकता है। उन्होंने इस संगोष्ठी के उद्देश्यों पर भी विस्तार से बात की।
प्रोफ़ेसर मनोज कुमार ने कहा कि हम अधिकतर मामलों में पूर्व धारणाओं के आधार पर ही बातें करते हैं। हमें चीज़ें जैसी दिखती हैं हमें लगता है कि यह ऐसी ही हैं। जबकि ऐसा अक्सर होता भी नहीं। हमें यह पता होना चाहिए कि हमें क्या पता नहीं है। हमें अपने अनुभवों पर आश्वस्त नहीं होना चाहिए। हमें तैयार रहना चाहिए कि हमें हमारे अनुभवों को भी चुनौती मिल सकती है। हमें व्यवस्थित चिंतन भी करना चाहिए। शिक्षक की पहचान के साथ-साथ मुक्ति का भाव, जन्म आधारित पहचान, लिंगाधारित पहचान, पेशेवर पहचान, अर्जित पहचान के साथ भी हमारी पहचान के कई कारक और कारण हो सकते हैं।
उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमें उन विशेष बातों पर जो शेष में नहीं हैं, उन पर सोचना चाहिए। अम्बेडकर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मनीष जैन ने सबका आभार जताया। उन्होंने कहा कि यह एक यात्रा है जो आरंभ हुई है। दूर-दराज से आए शोधकर्ताओं के पेपर जताते हैं कि शिक्षा की दिशा और दशा पर कई हैं जो सोचते हैं।
‘क्लासरूम में जाकर अपनी चिंताओं को भूल जाते हैं’
अध्यापन.कर्म में बदलाव पेपर प्रतिभा कटियार अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन देहरादून ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षक अपने कामों से नई छवि गढ़ रहे हैं जो कि सिर्फ कक्षा या स्कूल तक सीमित नहीं है। भले ही शिक्षण का पेशा उन्होंने किन्हीं अन्य वजहों से चुना हो लेकिन इस पेशे में आने के बाद इस काम की गरिमा और सन्तुष्टि का अनुभव हुआ है। उनके लिए किताबें या पाठ्यक्रम सीमा नहीं है।
वो पुरानी तमाम मान्यताओंए धारणाओं को तोड़ रहे हैं और नई गढ़ रहे हैं। ये शिक्षक कक्षा में जाकर अपनी तमाम चिन्तानओं और उलझनों को भूल जाते हैं। वो बच्चों से संवाद करके तय करते हैं कि आज बच्चों के मन का मौसम कैसा है यानी आज पढ़ाने की कौन सी तरकीब या कौन सी जुगत लगाई जानी चाहिए। कक्षा का माहौल आनंद लेने वाला बनानाए सीखने की उत्सुकता बच्चों के मन जगाने का काम शिक्षक करते हैं।
बाल केन्द्रित प्रक्रियाओं में शिक्षक की भूमिका पेपर देहरादून की प्राथमिक शिक्षिका ताहिरा खान ने प्रस्तुत किया। साथी सहयोगी अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,देहरादून के वर्तुल ढौडियाल रहे। उन्होंने कहा कि स्वयं की मान्यताओं पर बारबार प्रश्न करना सबसे बड़ी चुनौती थी क्यूँकि मेरी नज़र में शिक्षक की पूरी परिभाषा ही बदल रही थी।
उपयुक्त पठन सामग्री की कमी एक चुनौती थी। सभी समूहों को एक साथ कार्य करवाने में चुनौती आई। मैंने बच्चों को एक दूसरे की मदद करनेए समूह में कार्य करने और एक दूसरे के काम को जांचने के लिए प्रेरित किया जिसके कारण मैं सभी समूहों का एक साथ संचालन कर पाती हूँ ।
‘पाठ योजनाएं शिक्षक शिक्षा का अभिन्न हिस्सा हैं’
पाठ-योजनाः दार्शनिक व वास्तविक समझ पेपर विद्याभवन शिक्षा सन्दर्भ केन्द्र, उदयपुर की नेहा यादव ने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि कोठारी आयोग से अभी तक शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में शिक्षक की स्कूल के लिए तैयारी को शिक्षा में गुणवत्ता के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। अलग.अलग समय पर शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम से सम्बंधित चिन्तारओं व उन्हें सुधारने के तरीकों पर काम किया गया है।
उदाहरण के लिए पाठ योजनाए यह शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम का एक अभिन्न व महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। पूरे प्रशिक्षण के दौरान यह दैनिक दिनचर्या रहती है जो शिक्षक प्रशिक्षक को एक भावी शिक्षक के रूप में तैयार करती है। पाठ्यचर्या नवीनीकरण के लिए शिक्षक शिक्षा राष्ट्रीय फोकस समूह का आधार पत्र यह समझने में मदद करता है कि किस प्रकार पाठ योजना ज्ञान और पाठ्यचर्या सम्बन्धी पूर्व अवधारणाओं को बिना बदले मात्र एक औपचारिक दिनचर्या भी बन कर रह सकती है या यह शिक्षा के नवाचार की समझ के साथ समझ के विकास की और भी ले जा सकती है।
(एजुकेशन मिरर के साथ यह रिपोर्ट मनोहर चमोली ‘मनु’ जी ने साझा की है। इनका जन्म टिहरी, उत्तराखंड में हुआ। पत्रकारिता और क़ानून की शिक्षा के बाद अभी बतौर भाषा शिक्षक काम कर रहे हैं। ‘अंतरिक्ष के आगे बचपन’ और ‘जीवन में बचपन’ के अलावा 20 से ज्यादा कहानियां मराठी में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। आपने दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय में संप्नन हुए तीन दिन के एजुकेशन सेमीनार पर विस्तार से लिखा है। इसलिए आपकी रिपोर्ट को सिलसिलेवार ढंग से प्रकाशित करते हैं ताकि पाठकों के लिए पढ़ने की सुविधा हो।)
Excellent Report read by me.I found that issues are identified but their is a barrier to implement of the educational schemes and policies. Government is fail to provide quality education without ddiscriminatio because their are different type of school for data collection only.Can you told me that all government employee and we don’t admit our children in government schools, Why?
Well said Rajendendra ji. Allahabad High Court took gave the same direction but due to lack of willingness of the government admitting government employee’s children is not being put in action. Lack of motivated teachers is at the core of problem. Sufficient staff are not in the schools and they are lacking. Basic facilities. To bring new teaching material take a session. Even text books are not teaching to school in time fron last five years. Ground reality is very grim. Only hope are self motivated teachers who are putting efforts and bringing change in student’s life. Thanks a lot for your valuable comment and good question.