शिक्षा विमर्शः’असली लड़ाई तो सोच में बदलाव की है’
किसी भी स्कूल में पर्याप्त शिक्षक होने चाहिए ताकि बच्चों को हर विषय पढ़ने-सीखने-समझने का पर्याप्त समय मिल सके। शिक्षकों की पर्याप्त संख्या को नए-नए हथकंडे आजमाकर घटाने की कोशिश हो रही है। कभी कोई संस्था कहती है कि एक शिक्षक 100 बच्चों को संभाल सकता है।
तो कभी कोई संस्था कहती है कि शिक्षा पर होने वाले खर्च को कम करना है तो शिक्षकों के वेतन पर होने वाले खर्च में कटौती करनी होगी यानि शिक्षकों की संख्या कम करनी होगी।
जहाँ पर्याप्त शिक्षक हैं वहां का क्या हाल है?
संख्या वाले विमर्श का एक दूसरा पहलू भी है, जहां पर्याप्त शिक्षक हैं और बस टाइम पास कर रहे हैं। बाहरी तामझाम पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। काम वहां भी नहीं हो रहा है। बच्चों की पढ़ाई का नुकसान वहां पर भी हो रहा है। ऐसे में एक स्कूल में पर्याप्त शिक्षक की वकालत करते समय ऐसे स्कूलों का भी ध्यान रखना पड़ता है कि उन स्कूलों से शिक्षकों का तबादला अन्य स्कूलों में होना चाहिए।
सिर्फ कागजी काम और तस्वीरों को किसी स्कूल के सर्वश्रेष्ठ होने का पैमाना नहीं माना जाना चाहिए। इसे बहुआयानी बनाने और बच्चों के सीखने से जोड़ने की जरूरत है ताकि वास्तव में काम करने वाली स्कूलों को प्रोत्साहन मिल सके। ऐसी जगहों पर शिक्षकों की संख्या को कम होने से रोका जा सके जहां पर्याप्त बच्चों का नामांकन है। बच्चे रोज़ाना स्कूल आते हैं। स्कूल का माहौल साकारात्मक है।
नामांकन का हो भौतिक सत्यापन
बच्चों के नामांकन का भौतिक सत्यापन भी होना चाहिए ताकि फर्जी और कम उम्र वाले बच्चों के नामांकन समेत एक ही बच्चे के दो बार नाम लिखने जैसी समस्याओं का समाधान खोजा जा सके। सरकारी स्कूलों के साथ काम करने में सबसे बड़ी दिक्कत मानवीय संसाधनों का ‘मानवीय संवेदनाओं’ से शून्य होना भी है। सारे शिक्षक ऐसे नहीं हैं, मगर ऐसे शिक्षकों की संख्या कम नहीं है जो स्कूल में खुद तो कोई काम नहीं करते। साथ में काम करने वाले शिक्षकों को भी हतोत्साहित करते हैं।
कुल मिलाकर स्कूलों में बहुत से शिक्षकों का ऐसा सामाजीकरण हो रहा है जो उन्हें ‘असामाजिक और स्वार्थी’ बना रहा है। उनको अपने बच्चों की पढ़ाई और स्कूलिंग की फिक्र तो होती है जो निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। मगर उन बच्चों की परवाह उनकी दिनचर्या में नहीं होती, जिनको पढ़ाने के बदले में उनको हर महीने वेतन मिलता है। शिक्षक दिवस के दिन तमाम आदर्शवादी बातों के बीच ऐसी आलोचनाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। जो वास्तविक हैं और ज़मीन से जुड़ी हुई है।
असली लड़ाई नजरिये में बदलाव की है
डॉ. कलाम द्वारा सम्मानित एक शिक्षक कहते हैं, “मेरे साथ के लोग तैयारी करके विभिन्न पदों पर नौकरी हासिल कर रहे हैं। मगर मुझसे ऐसा नहीं हो पाता क्योंकि अगर कोई बच्चा अपनी परेशानी लेकर आता है तो उसका निराकरण करना पड़ता है। उसे पढ़ाना पड़ता है। मैं अपनी इस जिम्मेदारी से विमुख नहीं हो पाता।” ऐसे शिक्षक सही अर्थों में शिक्षक हैं. जिनको अपने बच्चों के भविष्य में अपना ‘भविष्य’ दिखाई देता है।
इस भावना या सोच को किसी प्रशिक्षण के माध्यम से एक स्किल की भांति सिखाया नहीं जा सकता। इसका रिश्ता नज़रिेये से हैं, जिसकी नॉलेज और स्किल के सामने कई बार उपेक्षा होती है। असली लड़ाई तो सोच में बदलाव वाले इसी मोर्चे पर हो रही है शिक्षा के क्षेत्र में जहां से बदलाव की तरफ जाने वाली राह का पथरीलापन थोड़ा कम किया जा सकता है।
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